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हम वोट किसे दे ?

कल एक मंच पर प्रश्न पढ़ा था की आगामी चुनाव में किसे वोट दे. वैसे तो ये एक सामान्य सा दिखने वाला प्रश्न है पर अगर आप थोड़ा सोचेंगे तो पाएंगे की ये प्रश्न इतना आसान न होकर बहुत बड़ा प्रश्न है. ये घर परिवार, मोहल्ला, गाँव, शहर, जिला, राज्य, समाज से ऊपर देश के भविष्य निर्धारण का प्रश्न है. देश की दलदल वाली दलगत राजनीति में अब सब तरफ़ कीचड़ ही कीचड़ नज़र आता है. वोट मांगने वाले पार्टी दलदल में फंसे है और वोट देने वाले जाती के भंवर में. आगे बढ़ने से पहले आज देश की राजनीति पर एक कवि की कुछ सटीक पंक्तिया याद आ रही है.

कोई साधू संत नही है राजनीति की ड्योढी पर |
अपराधी तक आ बैठे है माँ संसद की सीढ़ी पर ||
गुंडे तस्कर, चोर, माफिया, सीना, ताने खड़े हुए |
जिनको जेलों में होना था वो संसद में खड़े हुए ||
डाकू नेता साथ मिले है राजनीति के जंगल में |
कोई फर्क नही लगता है अब संसद और चम्बल में ||
कोई फर्क नही पड़ता है हम किसको जितवाते है |
संसद तक जाते जाते ये सब डाकू बन जाते है ||

कहाँ जाता है की प्रजातंत्र के चार स्तंभ होते है :
  1. विधानसभा
  2. न्यायपालिका
  3. नौकरशाही
  4. प्रेस
आइये कुछ समाधान खोजने से पहले ये जांच ले की आज हमारे देश में ये चार बुनियादे किस स्तिथि में है. वो ठीक ठाक कहलाने योग्य है और समय के साथ साथ आज मजबूत स्तम्भ बन कर उभरे है या फिर उन स्तंभों को समय की दीमक ने चाट कर खोखला और रीढ़विहीन बना दिया है.

  1. विधानसभा
राजनीति शब्द आज देश में एक गाली के समान है. ये देश का दुर्भाग्य है की जनता को आज चोर, डाकू, लुटेरे, अपराधी, माफिया में से किसी एक को चुनना होता है. करीब दो दशक पहले बिहार और उत्तर प्रदेश की राजनीति से जुड़े कुछ लोगों को लगा कि चुनाव जिताने-हराने में बाहुबलियों की महत भूमिका हो सकती है और इसलिए इनका सहयोग लिया जाए. बस यूँ समझ लीजिये की, यहाँ से राजनीति के अपराधीकरण की शुरुआत हो गई जो बाद में दूसरे राज्यों में भी शुरू हो गया. कुछ ही दिनों में बाहुबलियों को लगा कि अगर हम इनको बना सकते हैं तो ख़ुद क्यों नहीं बन सकते हैं. यहाँ से इस देश की बदकिस्मती की एक और दास्तां शुरू हो गई जिसका रोना हम आज तक रो रहे हैं. गुंडे राजनीति में आए और बड़े पदों पर पहुँचे और जो उनसे अपेक्षित था, आज वही देश की पूरी राजनीति में हो रहा है.

सत्ता अधम गुंडों मवालियों के हाथ में आ गई और वो केवल अपने स्वार्थ का ध्यान रख कर सरकारी पैसे का दुरुयोग करने की मंशा से देश की निति निर्धारण करने के बहाने देश को अधोगति की और बढ़ाने लग गए.प्रजातंत्र के मन्दिर कहे जाने वाले संसद में जुटे, चप्पल, नोट चलने लगे. आतंकवादी हमले होने लगे नेताओ की सुरक्षा का बजट बड़ा और इन सब के बीच आम आदमी पिसता चला गया.

जनता को अंत में साँप, नेवले और भेडियों में से किसी एक को चुनना वाकई चुनौतीपूर्ण हो जाता है. इसलिए कहते भी है "In India you do not caste your vote, but you vote your caste"
  1. न्यायपालिका
आज देश की न्यायपालिका का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है की दिल्ली हाईकोर्ट की वार्षिक रिपोर्ट 2007- 08 में कहा गया है कि सारे लंबित मामलों को सुलझाने के लिए अदालत को साढ़े चार सौ से अधिक साल का समय चाहिए. साढ़े चार सदियों में भी काम तभी निपट सकता है जब अदालत के पास नए मामले आने बंद हो जाएँ. जब तक क़ानूनों का सरलीकरण नहीं होता और क़ानूनी पेचों के कारण एक ही मामला भारत के अलग-अलग कोर्ट में चलता रहेगा, असक्षम जज, जिन्हें विधि प्रक्रिया की जरुरी समझ नहीं है, जज बने रहेंगे, जजों की मामले निपटाने में अरुचि रहेगी और अदालत की रग रग में कैंसर के रोग की तरह फैला हुआ भ्रष्टाचार रहेगा तब तक कुछ होना जाना नही है. एक ही केस में अलग अलग जज अलग अलग कोर्ट में अलग अलग फ़ैसला सुनाते है. जब अदालत को ख़ुद अपने फैसलों पर भरोसा नही है तो वो जनता से कैसे उम्मीद करे की जनता उसके फैसले का सम्मान करे.

ध्यान दे भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने सीबीआई से २००४ में पूछा कि वह सुझाव दे कि राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के सांसद पप्पू यादव को बेऊर जेल से हटाकर कहाँ रखा जाए जिससे उनकी 'असंवैधानिक गतिविधियों' पर रोक लगाई जा सके. सर्वोच्च न्यायालय ने पटना हाईकोर्ट में चल रहे मामले को भी सर्वोच्च न्यायालय में स्थानांतरित करने के आदेश भी दिए थे. पटना हाई कोर्ट ने २००४ में पप्पू यादव को जमानत दे दी. १८ जनवरी २००५ को सुप्रीम कोर्ट ये ने अपने फ़ैसले में कहा कि पटना हाई कोर्ट का पप्पू यादव को ज़मानत देने का फ़ैसला ग़लत था और उसने पप्पू यादव को ज़मानत देने के पटना हाई कोर्ट के फ़ैसले को रद्द कर दिया. फ़रवरी २००८ में पटना की एक विशेष अदालत ने मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) के पूर्व विधायक अजीत सरकार की हत्या के मामले में पप्पू यादव और दो अन्य को उम्र क़ैद की सज़ा सुनाई. फ़रवरी २००९ में पटना उच्च न्यायालय ने बुधवार को आजीवन कारावास की सजा भुगत रहे सांसद पप्पू यादव को ज़मानत दे दी.

  1. नौकरशाही
नौकरशाही तो अंग्रेजो के ज़माने से ही लाल फीताशाही में उलझी हुई थी. नौकरशाहों तो जब घृणित और नीच नस्ल के नेता आका के रूप में मिल गए तो फिर उन्हें वैधानिक रूप से भ्रष्टाचार, नीचता, बेईमानी और हरामखोरी करने की पुरी छुट मिल गई. आज ये दफ्तरशाही जोंक बन कर आम आदमी का खून चूस रही है. इनको तनख्वाह जनता के पैसे से मिलती है, रिश्वत भी जनता से लेते है लेकिन इनकी निष्ठां, जिम्मेदारी, वफादारी आदि सब नेताओ के प्रति होती है और इनके मुख्यत हर काम आम आदमी को तंग या परेशान करने के लिए ही होते है.

आज़ादी के 60 साल बाद आज हमारी नौकरशाही अपनी प्रशंसा में अपनी तुलना पड़ोसी देशों करते है और खुश हो लेते है. उनके अनुसार पाकिस्तान और बांग्लादेश की तुलना में भारत की तरक्की कहीं ज़्यादा है और इसमें नौकरशाही के योगदान को नहीं भुलाया जा सकता. शायद ख़ुद को जलालत से बचाने के लिए इन अफसरशाहों ने अपने न्यूनतम मापदंड या बेंचमार्क निकृष्टतम देशो के पैमाने को रखा और ख़ुद ही परीक्षार्थी बने, ख़ुद ने ही पर्चा बनाया, ख़ुद ने ही पर्चा दिया और ख़ुद ही जांच कर नतीजा निकाल दिया. स्पष्ट है की प्रशासनिक अधिकारियों का मानस आज भी नहीं बदला है, वे आज भी इस बात को स्वीकार नहीं कर पाए हैं कि पिछले 60 बरसों से कायम नई व्यवस्था में उनकी भूमिका जनता के सेवक की है.

सिंगापुर के पूर्व प्रधानमंत्री ली क्वान यू ने भारत के नौकरशाहों को दी जाने वाली गाड़ी, नौकर आदि की सुविधाओ के बारे में कहाँ था की अगर सिंगापुर इस तरह के राजसी वैभव लुटाने लग जाता तो उनके देश का निर्माण कभी हो ही नही सकता है. ली क्वान यू के अनुसार शायद भारत अभी एकमात्र ऐसा देश है जहाँ हर छोटे मोटे नेताओ और अफसरों को सबसे ज्यादा सरकारी सुविधाएँ मिलती है.

राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री रहते हुए कहा था कि अगर 100 रुपया केंद्र से चलता है तो 15 रुपए ही गाँव तक पहुँचता है और इसके लिए हमारे देश में व्याप्त भ्रष्टाचार ज़िम्मेदार है. पर इस भ्रष्टाचार के लिए केवल प्रशासनिक अधिकारी ही ज़िम्मेदार नहीं हैं. यह भ्रष्टाचार राजनीति और नौकरशाही दोनों में ही देखने को मिलता है. बहुत से नेताओं और नौकरशाहों की सांठ-गांठ के चलते जनता के पैसे वहाँ तक नहीं पहुँचे जहाँ के लिए उन्हें भेजा गया था. कागजो पर पुल, सड़क, कुएं इत्यादि बन जाते है पैसा खा लिया जाता है और जनता को मिलता है झूठी तरक्की का आश्वासन और कभी न पुरे होने वाले आम बुनियादी सुविधाओ के सपने जिन्हें आजादी के छ दशक बाद भी बड़े लुभावने ढंग की पैकिंग में पेश किया जाता है.

धीरे धीरी राजनीति, आपराधी और नौकरशाह का एक ऐसा कुख्यात बंधन बन गया है जो अपने छोटे छोटे स्वार्थो की पूर्ति के लिए देश को पुरी तरह बर्बाद करने पर आमादा है.

  1. प्रेस
लोकतांत्रिक देशों में प्रेस को चौथा खंभा माना जाता है, कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका को जनता से जोड़ने वाला खंभा.

पत्रकारों को कई सुविधाएँ मिलती हैं जैसे कई जगहों पर आने-जाने की आज़ादी, कार्यक्रमों में बेहतर कुर्सी, टेलीफ़ोन ख़राब होने पर जल्दी ठीक करवाने की व्यवस्था, रेल के आक्षरण के लिए अलग खिड़की वग़ैरह...ताकि वे अपनी ज़िम्मेदारियों का निर्वाह ठीक से कर सकें. ठीक उसी तरह जैसे सांसदों को टेलीफ़ोन, आवास, मुफ़्त यात्रा आदि की सुविधा दी जाती है. सांसद अपना काम ठीक से नहीं करते तो मीडिया उन पर टिप्पणी करने के लिए आज़ाद है. लेकिन जब मीडिया अपना काम ठीक से न करे तो?

दरअसल, जिन लोगों की ज़िम्मेदारी दूसरों के कामकाज की निगरानी, टीका-टिप्पणी और उस पर फ़ैसला सुनाने की होती है उनकी जवाबदेही कहीं और ज़्यादा हो जाती है. लेकिन फिर पत्रकार भी समाज का ही हिस्सा हैं, समाज में भ्रष्टाचार, बेईमानी और सत्ता के दुरुपयोग की जितनी बीमारियाँ हैं उनसे पत्रकारों के बचे रहने की उम्मीद करना नासमझी है.

आज देश के समाचार चैनल ज्यादातर मनोरंजन, खलबली मचाने के लिए जाने जाते है. आज ख़बरों के नाम पर नाग-नागिन, भूत-प्रेत, काल-कपाल चलते है शायद इसलिए की जनता इन्हे उतने ही चाव से देखती है जितने चाव से मीडिया इन्हे परोसती है. दर्शक देख रहे है ग़लत ख़बरें, नियमों का उल्लंघन, संवेदनाओं की हेठी और मनमाने मानदंड. कभी कभी, बीच-बीच में स्टिंग ऑपरेशनों से घबराई विधायिका मीडिया नियमन लागू करने की बात करती है, प्रेस को यह अपनी आज़ादी पर ख़तरा लगता है, पत्रकार कहते हैं कि हम ख़ुद अपना नियमन कर लेंगे.

दरअसल जब सब जगह जंगल राज है तो पत्रकार क्यों किसी उसूलो के बंधन में बंधे. उन्हें भी तो अपना घर चलाने के लिए पैसे की जरुरत होती है.

इन बातो से ये तो तय है की छ दशक में भी देश का दिशा निर्धारण सही नही हो पाया है. आजादी के चार दशक के कुछ बाद १९९१ में तो सोना गिरवी रख कर सरकार को पैसा लाना पड़ा था ताकि वो कर्जे के ब्याज की किश्ते चुका सके. आज पिछले दो दशक में हालत कुछ बेहतर हुए है लेकिन पुरे देश को इसका लाभ नही मिला है. आर्थिक प्रगति से कुछ प्रान्त, विशेष जातीयां या परिवार ही अधिक संपन्न हुए है. तो अब हम चुनाव से पहले कुछ सोचे, विचारे और तय करे की कौन इस देश की बागडौर सँभालने के लायक है.

देश में आज एक विशुद्ध चिंतन की आवश्यकता है, जिससे हम सत्ता के शीर्ष में बैठे भ्रष्ट, बेईमान और अपराधी किस्म के लोगों को सत्ता से बाहर कर देश में एक नई आजादी ला सकें। आजादी के बाद देश में कई सरकारें बदल गईं, लेकिन आज भी चरित्र, नियम और नीतियाँ नहीं बदली हैं, जिनके कारण आज भी सत्ता के शीर्ष में अधिकांश भ्रष्ट, बेईमान और अपराधी किस्म के लोग विराजमान हैं। शक्ति एवं संपत्ति के केंद्र सत्ता के शीर्ष पर बैठे नेताओं का चरित्र ठीक नहीं होने के कारण ही देश में भ्रष्टाचार पनप रहा है। दुःख इस बात का है कि इस भ्रष्टाचार को पूरे देश ने आज एक शिष्टाचार के रूप में स्वीकार कर लिया है। यह कड़वा सच है कि देश में 99 प्रतिशत से अधिक लोग ईमानदारी के साथ जीवन व्यतीत करना चाहते हैं, लेकिन एक प्रतिशत से कम भ्रष्ट और बेईमान लोग एवं भ्रष्ट व्यवस्था ने सौ करोड़ से अधिक जनता और देश का जीवन नरक बना दिया है।

सबसे पहले जिन बातो पर विचार करे वो ये की जो व्यक्ति चुनाव में खड़ा हुआ है उसका कोई अपराधिक रिकॉर्ड या अपराधिक छवि तो नही है. मेरे विचार से चुनाव में वोट किसी पार्टी को देना बेहतर रहता है क्योंकि निर्दलीय दल के नेता की जरुरत केवल अस्पष्ट बहुमत के वक्त आती है. उस समय ये महोदय अपना उल्लू सीधा करने के लिए उसी को समर्थन दे देते है जो इन्हे ज्यादा पैसे में खरीद सके. तो निर्दलीय अपना ख़ुद का फायदा करने से ज्यादा कुछ नही कर सकता.

आइये चुनाव में खड़े उम्मीदवारों से कुछ प्रश्न एक खुले पत्र के द्वारा पूछे और फिर तय करे की क्या ये सचमुच देश का भाग्य विधाता कहलाने लायक है या नही.

  1. सबसे पहले आप इस इलाके की तरक्की के बारे में क्या सोचते है. आप क्या नया करेंगे की लोगो को लगे की सरकारी खजाने के पैसे का सही इस्तेमाल हो रहा है.
  2. अब आप अपने पाँच साल का प्लान बतलाये और ये बताने का कष्ट करे की आप अगले पाँच सालो में कितने गावों को सम्पूर्ण साक्षर बनाएंगे, कितनी किलोमीटर सड़क का निर्माण करवाएँगे, कितने गावों में बिजली पहुचाएंगे, कितने गावों में स्वच्छ पानी पहुचाएंगे और इनमे कुल कितना खर्चा आएगा ?
  3. आप ये कैसे सुनिश्चित करेंगे की गावों में जहाँ बिजली नही है वहां बिजली पहुंचे और शहरो में जहाँ बिजली पहुँची हुई है वहां पैसे देने पर लोगो को निर्विघ्न बिजली उपलब्ध हो ?
  4. प्रशासन को पारदर्शी बनाने के लिए आप क्या कदम उठाएंगे ?
  5. आप भ्रष्टाचार को कैसे कम करने का प्रयास करेंगे ?
  6. हाल ही में अंतरष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) की रिपोर्ट के अनुसार २००९ में एशिया में करीब ढाई करोड़ नौकरिया ख़त्म हो जायेंगी. नए युवा जो नौकरी के बाजार में आयेंगे और जो लोग नौकरिया खोएंगे उनको सबको काम देने के लिए करीब छ करोड़ नए रोजगार उत्पन्न करने पड़ेंगे. इन छ करोड़ में करीब तीन करोड़ भारत में, दो करोड़ चीन में, छतीस लाख इंडोनेशिया में नए रोजगार पैदा करने पड़ेंगे. भारत में तीन करोड़ नए रोजगार पैदा करने के लिए आप या आपकी पार्टी क्या कर रही है.

अब उत्तर सुनने के बाद, आपको ये तय करना है की, अगर सचमुच कुछ परिवर्तन की उम्मींद है तब तो ठीक है वरना तो कुल मिला कर एक ही बात साफ़ है "भारत भाग्य विधाता"

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