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शाकाहारियों में कैंसर का ख़तरा कम

ब्रिटेन में किए गए एक अध्ययन में कहा गया है कि शाकाहार से कैंसर से रक्षा में मदद मिल सकती है. अध्ययन के अनुसार शाकाहारी लोगों में मांसाहारी लोगों की तुलना में कैंसर के बहुम कम मामले देखे गए. ये अध्ययन ब्रिटेन में 52,700 पुरुषों और महिलाओं पर किया गया, जिनकी उम्र 20 से 89 वर्ष के बीच थी.

एक अमरीकी जनरल में ये अध्ययन प्रकाशित हुआ है और शोधकर्ताओं ने इस अध्ययन को काफ़ी अहम माना है.

अध्ययन करने वाली टीम ने लोगों को तीन समूहों में बांटा और मांस खाने वाले, मछली खाने वाले और शाकाहारियों का समूह बनाया.

अध्ययन में पाया गया है कि मछली खाने वालों और शाकाहारियों में मांस खाने वालों की तुलना में कैंसर के कम मामले पाए गए. हालाँकि इस अध्ययन के अनुसार शाकाहारियों में कोलोरेक्टल कैंसर के अधिक मामले देखे गए. शोधकर्ता इस नतीजे से चकित हैं क्योंकि ये पहले के अध्ययन के उलट हैं. पहले के अध्ययन के अनुसार कोलोरेक्टल कैंसर की मांस खाने वालों में अधिक संभावना रहती है.

अध्ययन टीम के प्रमुख प्रोफ़ेसर टिमके का कहना है कि इससे पहले किसी भी अध्ययन में आहार को इस तरह से प्रमुखता नहीं दी गई थी जिसकी वजह से बहुत सारा भ्रम है. उनका कहना था, " ये एक दिलचस्प अध्ययन है, ये इस बात के संकेत दे रहा है कि मछली और शाकाहारियों में कैंसर का ख़तरा कम हो सकता है. इसलिए हमे इसे सावधानी के साथ देखने की ज़रूरत है."

उनका कहना था, " ये अध्ययन इस बात का समर्थन नहीं करता कि शाकाहारियों में कोलोरेक्टल कैंसर के मामले कम पाए जाते हैं. इसलिए मैं समझता हूँ कि मांस इसके लिए कैसे ज़िम्मेदार हो सकता है. इस सिलसिले में सावधानी पूर्वक विचार करने की आवश्यकता है. "

उन्होंने स्पष्ट किया है कि कैंसर और आहार के बीच संबंध स्थापित करने वाले इस अध्ययन पर और काम करने की आवश्यकता जो कि एक मुश्किल कार्य है.

गरीब देशवासियों की अमीर सरकार

आर्थिक मंदी के इस आलम में नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (सीएजी) की चौंकानेवाली रिपोर्ट आई है. ये रिपोर्ट है विदेशी सहायता के बारे में. रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत सरकार 78 हज़ार करोड़ रुपए की विदेशी सहायता का इस्तेमाल नहीं कर पा रही है.और तो और सरकार इतनी बड़ी रक़म पर विश्व बैंक और एशियाई विकास बैंक को 'वायदा शुल्क' भी दे रही है.
सीएजी की ये रिपोर्ट हाल ही में संसद में पेश की गई. सीएजी ने अपनी इस रिपोर्ट में सरकार से पहल करने की अपील की है ताकि विदेशी सहायता का इस्तेमाल हो सके.

सीएजी की रिपोर्ट में कहा गया है- चूँकि विदेशी सहायता इतनी क़ीमती होती है और सरकार इस पर वायदा शुल्क भी दे रही है. इसलिए इस मामले पर पहल की आवश्यकता है ताकि उपलब्ध कोष का इस्तेमाल न कर पाने वाले क्षेत्रों के मुद्दों पर ध्यान दिया जा सके.

रिपोर्ट में कहा गया है कि 31 मार्च 2008 तक 78,037 करोड़ रुपए की विदेशी सहायता का इस्तेमाल नहीं हुआ है. जबकि सरकार ने 2007-08 के वित्तीय वर्ष में 124.54 करोड़ रुपए का वायदा शुल्क दिया. इस वायदा शुल्क का ज़्यादातर हिस्सा विश्व बैंक और एशियाई विकास बैंक को गया है. वायदा शुल्क उस मूलधन पर दिया जाता है, जिसे निकालने की तारीख़ आगे बढ़ा दी जाती है. सीएजी की रिपोर्ट में कहा गया है कि अपर्याप्त योजना के कारण सरकार ऐसी जगह ख़र्च कर रही है, जिससे बचा जा सकता था.

मेरा भारत महान

क्या आप जानते है की कसाब को देश पर हमला करने के लिए ईनाम दिया जा रहा है.
बीबीसी में छपे समाचार के अनुसार मुंबई हमलों की सुनवाई के लिए महाराष्ट्र सरकार ने एक विशेष अदालत का गठन किया है. ये अदालत आर्थर रोड जेल में ही बैठेगी जहाँ कसाब को रखा गया है. कसाब की कोठरी और अदालत का कमरा, दोनों ही एयरकंडीशंड होंगे. अदालत के निर्माण में राज्य सरकार दो करोड़ रूपए ख़र्च कर रही है.

हाल ही में वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के दौरान कसाब ने न्यायाधीश से कहा कि उसके ख़िलाफ़ जो आरोपपत्र दायर किया गया है, वह उसे नहीं समझ पाया है क्योंकि वह अंग्रेज़ी और मराठी भाषा में है. मुंबई हमलों से जुड़े दो भारतीय अभियुक्तों - फ़हीम अंसारी और सबाउद्दीन अहमद - ने 12 हज़ार पृष्ठों वाले आरोपपत्र का उर्दू अनुवाद उपलब्ध कराए जाने की माँग की थी. इस बारे में सरकारी वकील उज्ज्वल निकम ने बताया,"तीनों अभियुक्तों ने इस सुनवाई को आगे टालने की एक नाकाम कोशिश की. लेकिन 12 हज़ार पन्नों के आरोपपत्र का अनुवाद आसान काम नहीं है, इसलिए अदालत ने उनकी माँग को रद्द कर दिया".

आज देश के सरकारी कर्मचारीयो के द्वारा 12 हज़ार पन्नों के आरोपपत्र बनाना, टाइप करने जितनी मेहनत अगर अपराधी को सजा देने में इस्तेमाल की जाती तो देश की नियति अवश्य बदल सकती थी. पहले तो सरकार में कुछ काम होता नहीं और होता भी है तो ऐसा जिसकी कोई उपयोगिता नहीं हो.

देश की खाऊ पुलिस के खाऊ चूहे

हरियाणा पुलिस मानती है कि उन्हें सबूतों और सरकारी रिकॉर्डों को नष्ट होने से बचाने का एक नायाब उपाय मिल गया है.
बड़े-बड़े पेटू चूहों को डराने के लिए उन्होंने सफ़ेद पालतू चूहों की जोड़ी का इस्तेमाल करना शुरू किया है.

हर तरह के हथियार उपलब्ध होने के बावजूद हरियाणा पुलिस चूहों की बढ़ती आबादी से निपटने में असफल रही जो उनके सरकारी कागज़ात और दूसरे सबूतों को ख़त्म कर देते हैं.

राज्य के करनाल ज़िले में हालात ख़ासतौर पर बदतर हो गए थे जहाँ चूहों की सेना ने कुछ ही सालों में अदालतों के अनेक रिकॉर्ड नष्ट कर दिए थे.

भारत में चूहे एक बड़ी समस्या हैं जो हर साल मानव खाद्य के लिए जमा किया गया टनों अनाज चट कर जाते हैं.

करनाल के वरिष्ठ पुलिस महानिरीक्षक अर्शिंदर सिंह चावला ने कहा, "चूहों ने मोहर्रर मालखाने (रिकॉर्ड रखे जाने का स्थान) पर हमला कर दिया और हम असहाय बने देखते रहे."

उन्होंने कहा, "यह चूहे बहुत खाऊ हैं और हमारे ज़रूरी कागज़ात, कपड़े और यहाँ तक कि जूट की वह बोरियाँ भी चट कर जाते हैं जिनमें हम अपराधियों से या आपराधिक स्थल से मिले एल्कॉहल, नशीला सामान और हथियार रखते हैं."

ऐसा लगता है कि चूहों को अफ़ीम की भूसी से भरी बोरियाँ बेहद पसंद होती हैं. आमतौर पर हरियाणा में नशे के लिए इस्तेमाल किये जाने वाले इन पदार्थों को पुलिस ड्रग माफ़िया से बड़ी मात्रा में बरामद करती है.

लेकिन अब चावला और उनके साथियों को चूहों के सफ़ेद संबंधियों के रूप में जैसे इस समस्या का उपाय मिल गया है.

चावला ने कहा, "एक महीने पहले अंबाला के एक आदमी ने हमें सुझाव दिया कि हम इन घरेलू चूहों का इस्तेमाल करें."

इस समस्या के लिए कुछ भी करने को तैयार करनाल पुलिस ने प्रयोगशाला के एक सप्लायर से 200 रुपए में दो सफ़ेद चूहे ख़रीदे.

उन्होंने कहा, "इसने तो जादू की तरह काम किया."

उनके अनुसार, "हमारे आदमी इन्हें हर रात मालखाने में छोड़ते और पेटू चूहे तुरंत वहाँ से गायब हो जाते."

चावला ने कहा, "सबसे अच्छी बात यह है कि सफ़ेद चूहे कागज़ या बोरी को नहीं छूते बल्कि वे हमारी ओर से दिए गए दूध और रोटी ही खाते हैं."

करनाल पुलिस कंपाउंड में किये गये इस अनोखे प्रयोग ने विश्वविद्यालय के पशु वैज्ञानिकों का ध्यान आकर्षित किया. चावला के ज़हन में भी इस संबंध में अनेक सवाल थे जिनके जवाब वे हिसार के हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय की पशु प्रयोगशाला से चाहते थे.

भारत के प्रमुख चावल और गेंहू उत्पादक राज्यों हरियाणा और पंजाब में चूहे एक बड़ी समस्या हैं.

अधिकारियों का कहना है कि हर साल टनों अनाज खाने के अलावा चूहे अक्सर नहरों के किनारों को भी अपने बिल बनाकर खोखला कर देते हैं जिससे गाँवों और खेतों में बाढ़ की आशंका बढ़ जाती है.

भारतीय रेलवे समेत अनाज को लाने ले जाने वाले देश की प्रमुख सरकारी और निजी संगठन हर साल चूहों के कहर से बचने की कोशिश में लाखों रुपए खर्च कर देते हैं.

चावला ने कहा कि वे नहीं जानते कि सफ़ेद चूहों ऐसा क्या और कैसे करते हैं लेकिन यह देश की बड़ी समस्या से बचने का एक नायाब तरीक़ा ज़रूर है.

गरीब देश भारत के चुनाव ?

आपको ये जानकर हैरानी होगी कि भारत में आने वाले लोकसभा चुनाव का ख़र्च अमरीका में हुए राष्ट्रपति चुनाव के ख़र्च से ज़्यादा होने का अनुमान है. वो भी ऐसी परिस्थिति में जब अमरीकी राष्ट्रपति की चुनाव प्रक्रिया क़रीब साल भर चलती है जबकि भारत में लोकसभा चुनाव महीने भर में निपट जाते हैं.

सेंटर फ़ॉर मीडिया स्टडीज़ (सीएमएस) के एक सर्वेक्षण के मुताबिक़ भारत में लोकसभा चुनाव में 10 हज़ार करोड़ रुपए ख़र्च हो सकते हैं. जो क़रीब दो अरब अमरीकी डॉलर है.

दूसरी ओर अमरीका के संघीय चुनाव आयोग के आँकड़े बताते हैं कि अमरीका के राष्ट्रपति चुनाव में जीते बराक ओबामा और अन्य उम्मीदवारों का कुल ख़र्च क़रीब आठ हज़ार करोड़ रुपए था.

सीएमएस के सर्वेक्षण के मुताबिक़ भारत में लोकसभा चुनाव का अनुमानित ख़र्च 10 हज़ार करोड़ रुपए हैं और इसमें से एक चौथाई यानी क़रीब 2500 करोड़ रुपए इस तरह ख़र्च होंगे, जिनका कोई लेखा-जोखा नहीं होगा. सर्वे में यह भी बताया गया है कि ऐसे पैसे उम्मीदवार अपने मतदाताओं को बाँटे सकते हैं.

अमरीका में हाल ही में हुए राष्ट्रपति चुनाव को अब तक का सबसे महंगा राष्ट्रपति चुनाव माना गया था. इस चुनाव का ख़र्च वर्ष 2004 में हुए राष्ट्रपति चुनाव से दोगुना था.

भारत के हिसाब से देखें तो इस बार लोकसभा चुनाव में होने वाला अनुमानित ख़र्च पिछले लोकसभा चुनाव के मुक़ाबले दोगुना है. पिछले लोकसभा चुनाव का ख़र्च क़रीब 4500 करोड़ रुपए था.

अब जरा एक नज़र संसद के काम काज पर भी डाल ले. क्या आप जानते है की संसद पर प्रति मिनट बीस हजार रूपये तथा एक दिन का बहत्तर लाख रूपयों का खर्च होता है। इस खर्च को क्या सांसद व्यर्थ नहीं कर रहे।

संसद की चुनाव दर चुनाव घटती बैठकें और बढते बहिष्कार ने भारतीय प्रजातंत्र पर प्रश्न खडा कर दिया है। 14वीं लोकसभा में कई ऐसे सांसद थे जिन्होंने इसमें होने वाली सभी मीटिंग्स को नियमित तौर पर अटेंड ही नहीं किया। इसमें सबसे पहला नाम आता है गोविंदा अरुन आहुजा को जो अपने पहली पसंद यानी बॉलीवुड में व्यस्त दिखे और ये भूल गए कि उन्हें लोकसभा भी अटेंड करनी है। वहीं धर्मेंद्र जो बीकानेर से चुनाव लड़ते हैं वहां की जनता की भलाई से ज्यादा अपने बेटे के करियर बनाने में ही जुटे रहे। बेचारे शिबु सोरेन तो जेल के ही चक्कर काटते रह गए। ममता बनर्जी भी कुछ कम हीं दिखीं। पूरा साल उन्होंने नैनो और टाटा से लड़कर ही बिता दिया लेकिन संसद में जाने का वक्त नहीं निकाल पाईं। समाजवादी पार्टी के सांसद अखिलेश यादव कहते हैं कि मैं अपने निर्वाचन क्षेत्र की जनता से ये वादा करता हूं कि अलगी बार मौका मिलने पर मैं बहुत अच्छा काम करूंगा।

14वीं लोकसभा के दौरान जिन सांसदों की 30 परसेंट से भी कम उपस्थिति रही है वो है अतीक अहमद-20 परसेंट, बाबू लाल मरांडी-29 परसेंट, दयानिधी मारन-10 परसेंट, धर्मेंद्र-24 परसेंट, गोविंदा-12 परसेंट, एम एच अंब्रीश- 27 परसेंट, ममता बनर्जी-18 परसेंट, मोहम्मद शाहबुद्दीन-24 परसेंट, पप्पू यादव-4 परसेंट और शिबु सोरेन-14 परसेंट।
कुछ और आगे बढे तो देखेंगे कि उपस्थिति की इस लिस्ट में कुछ खास लोगों के नाम भी शामिल हैं। मिसाल के तौर पर सोनिया गांधी जिनकी उपस्थिती 36 परसेंट है, एच डी देवेगौड़ा 39 परसेंट, प्रिया दत्त 46 परसेंट, नवजोत सिंह सिद्धू 45 परसेंट और जया प्रदा 43 परेंसट।
वैसे सिक्के का दूसरा पहलु भी है पर वो भी उतना ही अफसोसजनक है. तेलगु देसम पार्टी के इराबेल्ली दयाकर राव की अगर बात करें तो इनकी अटेंडेंस है 100 परसेंट। लेकिन वो बेकार ही थी क्योंकि अगर डिबेट रिकॉर्ड देखें तो इन्होंने कभी संसद में कोई सवाल नहीं पूछा और न ही किसी बहस में हिस्सा लिया. बस केवल सौ परसेंट अटेंडेंस दिखाई.

गत पांच वर्षों में साठ से अधिक सांसदों द्वारा जन महत्व का एक भी सवाल नहीं पूछना क्या मतदाताओं के प्रति विश्वासघात नहीं है?