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किसी भी धर्म के बारे में गलत बोलना या लिखना क्या उचित है


ये बात बिलकुल सही है कि समय के साथ साथ हिन्दू धर्म का हास होता गया है और आज समाज में व्याप्त बाबाओ के विभिन्न रूप जैसे की हत्यारा बाबा, बिचौलिया बाबा, सेक्स रैकेट वाला बाबा, स्टिंग बाबा, अय्याश बाबा, गाली बोलता बाबा, बिस्तर में बाबा, ढोंगी बाबा, पाखंडी बाबा इत्यादि इसका जीता जागता प्रमाण है. बचपन में कहावते पढ़ी थी, "अधजल गगरी झलकत जाए / थोथा चना बाजे घना" दोनों ही कहावते आज के सन्दर्भ में अक्षरश सही बैठती है.


जब धर्म का निरूपण करने वाले अल्पज्ञानी, अज्ञानी, मायावी या लालची हो जाते है तो कमोबेश ऐसा ही कुछ होता है, जैसा की हमें आजकल हर रोज देखने, सुनने या पढने को मिल रहा है. यहाँ मायावी शब्द को कोई राक्षस तो कोई बहरूपिया समझ सकता है, कोई अन्य व्यक्ति इसे मोह और माया के जाल में फंसा हुआ समझ सकता है. वेद कहते है कलयुग में मनुष्य अल्प आयु के होते है और तर्क बहुत करते है. तुलसी बाबा ने कलयुग की महिमा का वर्णन करते हुए उत्तर काण्ड में साफ़ लिखा है कि :

बहु दाम सँवारहिं धाम जती। बिषया हरि लीन्हि न रहि बिरती॥
तपसी धनवंत दरिद्र गृही। कलि कौतुक तात न जात कही॥

कलयुग में संन्यासी वो होगा जो बहुत धन लगाकर घर सजाएगा सन्यासियों में वैराग्य नहीं रह जायेगा, उनको विषयों ने हर लिया होगा, तपस्वी धनवान हो जायेंगे और गृहस्थ दरिद्र। हे तात! कलियुग की लीला कुछ ऐसी ही होगी. प्रत्यक्षत:,आज हम सब देख रहे है किसी बाबा का सौ करोड़ का तो किसी का तीन सौ करोड़ का आश्रम हैं, विषयों से दूर रहने वालो के पास उनके अपने विमान है, मर्सिडीज़ और BMW जैसी गाड़िया है.

आगे तुलसीदासजी लिखते है :
धनवंत कुलीन मलीन अपी। द्विज चिन्ह जनेउ उघार तपी॥
नहिं मान पुरान न बेदहि जो। हरि सेवक संत सही कलि सो॥


कलियुग में धनी लोग मलिन होने पर भी कुलीन माने जायेंगे । ये कलयुग है जहाँ द्विज का चिह्न जनेऊ मात्र रह गया और नंगे बदन रहना तपस्वी का। जो वेदों और पुराणों को नहीं मानते, कलियुग में वे ही हरिभक्त और सच्चे संत कहलाते है | अपने इन्सान होने पर शर्म आ गया जब अभी श्री पी सी गोदियाल जी के ब्लॉग पर पढ़ा की देश में "आज जहां एक तरफ़ करोडों की आवादी भुखमरी के कगार पर खडी है, कानून और व्यवस्था की स्थिति ऐसी है कि एक बेखौफ़ दुष्कर्मी जो एक युवति से दुष्कर्म की सजा काट रहा है, जेल से छूटकर आता है तो फिर उसी युवति को सरे-आम उठा कर ले जाता है। और उसके साथ मुह काला करने के बाद उसे नोऎडा की सड्कों पर फेंक देता है।" इंसानियत को शर्मसार करता वो मलिन हैवान इस कृत्य को केवल इसलिए अंजाम दे पाता है क्योंकि वो आज के कलयुग में कुलीन कहलाता है. कलयुग का इससे अच्छा उदहारण क्या मिल सकता है कि उत्तर प्रदेश सरकार के पास दुर्घटना में मरने वालो के लिए अनुदान नहीं है लेकिन पार्टी के अय्याश और अय्याशियों को जश्न मनाने के लिए दलित के नाम पर पांच सौ करोड़ का खर्चा कर सकते है. क्या ये राशि गरीबो के व्यवसायिक प्रशिक्षण में खर्च करते तो ज्यादा बेहतर नहीं होता. लेकिन वो आज के कुलीन लोग है जो चाहे वो कर सकते है.

ऐसा माना जाता है कि तुलसीदास जी वाल्मीकि के अवतार हैं| हिंदू मान्याताओं के अनुसार आत्मा अमर है| वाल्मीकि ने "रामायण" की रचना की थी और उसका पाठ करके लंबे अंतराल तक हिंदू एक सूत्र में बंधते रहे| ऐसा कहते है कि कालान्तर में संस्कृत भाषा का ह्रास हो जाने के कारण "रामायण" का प्रभाव क्षीण होने लगा तब वाल्मीकि को "रामायण" के लिये तुलसीदास के रूप में अवतार लिया.

यहाँ ब्लॉगजगत पर भी एक ज्ञानी महोदय अपने ज्ञान का प्रसार करने में लगे हुए है. उन्हें शायद अपने धर्म से सम्बंधित इतनी अधिक जानकारी है की वो दुसरे धर्म में या यूँ कहे हिन्दू धर्म पर अक्सर व्याख्या करते देखे गए है. कुछ लोग है जो उनके इन कुतर्को को पढ़ते है और बहस करते है या सलाह देते है. अफ़सोस की आज के समय में उनके धर्म को, उनके कुछ धर्मगुरूओ ने अगुवा कर लिया है. धर्म के नाम पर खून बहाने वाले वे धर्मगुरु, आज उस धर्म का गलत प्रचार कर के पुरे विश्व में उस धर्म की एक गलत छवि पेश कर रहे है. अंग्रेजी में एक कहावत है "Attack is the best defense". इसलिए शायद ये महाशय अपने आप को ग्लानी से बचाने के लिए दुसरो के धर्म पर हल्ला बोल रहे है. वो ये भूल गए है की सनातन धर्म कोई दो तीन पांच सौ या हज़ार साल नया धर्म नहीं है. दुसरो पर ऊँगली उठाते वक़्त हम ये भूल जाते है की चार उंगलिया हमारी तरफ आ रही है.

मुझे पता नहीं इनको अपने स्वयं के धर्म की कितनी जानकारी है लेकिन अगर इन महोशय के हिन्दू धर्म के अल्पज्ञान को अगर परिभाषित करना हो तो इतना ही कहूँगा की हिन्दू धर्म ग्रंथो में से अब तक ये जो भी पढ़ कर समझ उसमे से ये केवल इन्हें विवाद, बहस या कीचड़ ही निकाल सके. तो क्या क्या हिन्दू धर्म ग्रंथो में कुछ अनर्गल है. नहीं ऐसा बिलकुल नहीं है. जैसे जल और ओले में भेद नहीं । दोनों जल ही हैं, ऐसे ही वेद और ग्रंथो में भेद नहीं है, दोनों ही भ्रम का निवारण करते है और भागवद मार्ग प्रशस्त करते है. भेद है तो केवल हमारी अल्प बुद्धि में है जो उस चीज़ को सही ढंग से समझ नहीं सकती. इसे यूँ समझे की, एक कक्षा में कई बच्चे पढ़ते है, उस कक्षा में किसी एक विषय को पढ़ने वाला शिक्षक भी एक ही होता है. फिर भी कोई बच्चा बहुत अच्छे अंक लेकर अव्वल आता है और आगे जाकर विख्यात होता है और कोई फिसड्डी रह जाता है, जो भविष्य में कुख्यात बन जाता है. वैसे ही धर्म ग्रन्थ, फिर चाहे वो किसी भी धर्म के क्यों न हो सब एक ही सन्देश देते है, लेकिन कोई समझ जाता है और कोई ....

शास्त्र कहते है "यदा यदा ही वाक्य मुच्च्यती बाणम, तदा तदा ही जाती कुल प्रमाणम्" यानि जैसे जैसे आप अपने वाक्यों के बाण छोड़ते है वैसे वैसे ही आप अपने आप को दुसरो के सामने परिभाषित करते है, कि आप खुद क्या हो ? बस क्या कहे समझ अपनी अपनी, सोच अपनी अपनी.

जैसा मैंने पहले भी कहाँ था स्मृति हमें बताती है की व्यक्ति को एक चौथाई ज्ञान आचार्य या गुरु से मिल सकता है, एक चौथाई स्वयं के आत्मावलोकन से, अगला एक चौथाई अपने संग या संगती में विचार विमर्श करने से और आखिरी एक चौथाई अपने जीवन शैली, जिसमे सद्विचार और सदव्यवहार को जोड़ना, कमजोरीयों को हटाना, अपना सुधार करते रहना और समय के अनुकूल परिवर्तन करना शामिल है, से मिलता है.

जिस प्रकार अगर कही दूध की बोतल होगी तो उसमे से दूध निकलेगा, शहद की होगी तो उसमे से शहद निकलेगा, पानी की बोतल में पानी मिलेगा और शराब की बोतल में...... ठीक वैसे ही जैसा हम अवलोकन करेंगे, जैसी संगती करेंगे, या जैसा हम देखेंगे वैसा ही हमें ये संसार दिखेगा और जैसा हम सोचेंगे ठीक वैसा ही हमें ज्ञान प्राप्त होगा.

कही किसी ने कहाँ, की शाम हो गई है. अब ये सुन कर एक मजदुर सोचता है की आज का कार्य बंद करके घर जाने का समय हो गया है, ग्वाले सोच रहे है की गोधुली वेला हो गई है अपनी गायो को वापस ले जाने के लिए इकट्ठा करना शुरू करो, किसी संत ने सोचा की भगवान् की संध्या पूजा का वक़्त हो गया है और नाचने वाली सोचती है की धंधे का समय हो गया है. एक ही बात का चार अलग अलग व्यक्तियों ने अलग अलग मतलब निकाला.

हिन्दू धर्म में जिस प्रकार चार आश्रम (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यास), चार वेद (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद), चार धाम [बद्रीनाथ (उत्तर में), जगन्नाथपुरी (पूर्व में), रामेश्वरम (दक्षिण में), द्वारका (पश्चिम में)], चार पुरुषार्थ (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष),चार वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य , सूद्र) बतलाये गए है, ठीक उसी तरह धर्म ग्रन्थ में लिखे हर श्लोक के भी चार प्रकार के अर्थ (शब्दार्थ, भावार्थ, व्यंगार्थ और गुडार्थ) का समावेश है. लेकिन जिनका आज के समय में इस प्रकार से व्याख्या करना आज किसी भी व्यक्ति के लिए संभव नहीं है. आपने अभी देखा की किस प्रकार उपरोक्त एक वाक्य का मतलब सब लोगो ने अपने अपने हिसाब से निकाल लिए, ठीक ऐसा ही कुछ वेद शास्त्रों के साथ हो रहा है. सदियों पहले लिखे हुए वेद आज पूर्ण रूप से अपने मूल रूप में है ये कहना अतिश्योक्ति पूर्ण ही होगा.

शास्त्रों में जिस रक्ष संस्कृति का वर्णन है वो आखिर है क्या ? पढ़िए भाग में.....

2 comments:

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

एकदम दुरस्त फरमाया आपने भावेश जी ! राम चन्द्र कह गए सिया से ऐसा कलयुग आयेगा , हंस चुंगेगा दाना तिनका कौवा मोटी खायेगा !

हाँ, आपका ब्लॉग खुलने में बहुत देर लगती है, कुछ विजेट्स हटा ले तो शायद समस्या सुलझ जाए !साथ ही वर्ड वेरिफिकेशन भी हटा ले, क्योंकि उसकी कोई मीनिग यहाँ नहीं है !

Bhavesh (भावेश ) said...

गोदियाल जी, फीडबैक के लिए धन्यवाद. आपके आदेशानुसार मैंने कुछ widgets, जो लोड होने में ज्यादा समय ले रहे थे, वो हटा लिए है. आशा है अब ब्लॉग खुले में ज्यादा देर नहीं लगेगी.