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ताज और कसाब

कसाब और उसके साथियो ने होटल ताज पैलेस पर हमला ऐसे ही किया था. उन्हें पता था की इस आतंकी घटना को अंजाम देने के बाद भारत देश की सरकार उनकी खातिरदारी वैसी ही करेगी जैसी की ताज महल होटल में होती है. आइये एक नज़र डाले और देखे की ताजमहल और ताज होटल मुंबई पर हमला करने वाले कसाब में क्या क्या समानताये है.

जिस प्रकार ताज महल को शाहजहाँ बनाया था ठीक उसी प्रकार कसाब को हमारे आज के हरामखोर नेताओ ने बनाया है. ताज महल को मुमताज की याद में बनाया गया है और कसाब को २६ नवम्बर २००८ की उस भयावह रात को शहीद हुए उन एक सौ अस्सी लोगो की शहादत को याद रखने के लिए जिन्दा रखा गया है.

ताज के पर्यवेक्षण में तीन मुख्य निर्माता अब्दुल करीम मामूर खान, मक्रामत खान और उस्ताद अहमद लाहौरी थे, कसाब को भी जिन्दा पकड़ने के लिए मुंबई पुलिस के तीन बहादुरों हेमंत करकरे, विजय सलास्कर और अशोक कामटे को अपनी बलि देनी पड़ी थी.

ताज के खर्चे में उस समय के करीब ३.२ करोड़ रूपये खर्च हुए थे और कसाब के ऊपर अब तक अनुमानित ३१ करोड़ रूपये खर्च हो चुके है. इसमें से ३० करोड़ से तो मंत्रियो संतरियों और बाबुओ की जेब गरम हुई होगी). जहाँ देश में आज आम आदमी दिन के ८५ रूपये नहीं कमा पाता वही सरकार आम आदमी की मेहनत की कमाई के इस पैसे के टैक्स से एक दुर्दांत वहशी दरिन्दे को जिन्दा रखने के लिए रोज ८.५ लाख रूपये खर्च कर रही है. अगर कसाब को पांच सितारा होटल में एक साल तक रखा जाता तो कुल खर्चा इस सरकारी खर्चे के लगभग दो प्रतिशत के बराबर होता. चौकिये नहीं ये कोई आश्चर्य की बात नहीं है. देश में जहाँ लोग भूख से मर रहे है, आत्महत्या कर रहे है वहां अफज़ल और कसाब जैसे जहरीले सांपो को दिल्ली न केवल दूध पिला कर पाल पोस रही है बल्कि उनको मेहमानों के जैसे मटन बिरयानी खिलाई जा रही है. इसे देख कर तो ऐसा ही लगता है की देश में गुमनाम आम नागरिक से तो आतंकवादी का वर्तमान और भविष्य कई गुना अच्छा है.

जिस तरह ताज महल को सम्पूर्ण भारत और एशिया से लाई गई सामग्री से निर्मित किया गया था ठीक उसी प्रकार मुंबई हमलो को निर्बाध रूप से क्रियान्वन करने के लिए देश के कई हिस्सों से जयचंदों ने सामग्री के रूप में होटल के नक़्शे, मोबाइल, सिम इत्यादि मुहैया करवाए थे. और पडोसी देश ने अपने और उसके मित्र देश चीन तथा अफगानिस्तान में निर्मित गोला, बारूद, बंदूके दे कर सहयोग किया था.

ताज महल को बनाते वक़्त निर्माण सामग्री के परिवहन के लिए एक हज़ार हाथियों का इस्तेमाल किया गया था. देश पर हुए इस हमले से निपटने के लिए भी हज़ार कमांडो और अर्ध सैनिक बलों का इस्तेमाल किया गया.

ताज महल के निर्माण में बीस हज़ार मजदुर लगे थे और करीब इतने ही पुलिस वाले मुंबई की सडको पर हमले के बाद दिखाई दिए थे.

जिस प्रकार ताजमहल इमारत समूह रक्षा दीवारों से परिबद्ध है, ठीक उसी प्रकार सरकार ने आर्थर रोड जेल को भी तथाकथित रूप से आमूलचूल सुरक्षा से परिपद्ध कर दिया है. (तथाकथित सुरक्षा इसलिए क्योंकि सरकार के अलावा किसी को इस बात का भरोसा नहीं है की वहां कोई आतंकवादी नहीं जा सकता, अब तक अगर कोई आतंकवादी वहां नहीं गया तो इसलिए नहीं क्योंकि सुरक्षा अभेद है बल्कि शायद इसलिए की पडोसी मुल्क में बैठे कसाब के कई बापों में से अब वो किसी के काम का नहीं रहा और उन बापों में से किसी को भी अब उसकी कोई जरुरत नहीं होगी.)

हम लोग अपनी आँख बंद कर, दुनिया को अँधा समझ लेते है. कब तक हम प्रजातंत्र के नाम पर नपुंसक बने बैठे रहेंगे. क्यों हम अन्य देशो से नहीं सीखते. चीन को देखो वो इतनी प्रगति क्यों कर रहा है. इसका ये वाकया एक सीधा सा उदाहरण है. 'सान्लू' जो पिछले साल सितम्बर तक चीन की सबसे बड़ी पाउडर दूध विक्रेता कम्पनी थी उसने मिलावटी दूध पाउडर बेचा जिससे छ चीन में बच्चो की मृत्यु हो गई. घटना मीडिया में आते ही कंपनी पर इतने केस हुए की उस कंपनी का दिवाला निकल गया. और इस घटना के एक साल के बाद इस साल नवम्बर में चीन की अदालत ने आम लोगों की सुरक्षा को ख़तरे में डालने और मेलेमाइन से विषाक्त पाउडर दूध सप्लाई करने के आरोप में दो लोगों को मृत्यु दंड दिया और १९ अन्य लोगों को जेल की सज़ाएं दी. उधर छ बच्चो को मिलावटी दूध बेच कर मारने वालो को फांसी हो गई है और इधर हम दो सौ लोगो को निर्ममता से मौत के घाट उतारने वाले और कई हजारो को हताहत करे वाले वहशी दरिन्दे को मेहमान बनाये रख प्रजातंत्र की लाश पर सेक कर रोटियां और अपनी बोटियाँ खिला रहे है. जब तक देश की बागडोर ऐय्याश और भ्रष्ट नेताओ के हाथो में रहेगा तब तक कोड़ा सरीखे नेता हजारो करोड़ खाते रहेंगे और डकार भी नहीं लेंगे. देश में लाल किले पर हमला, कंधार काण्ड, अक्षरधाम हमला, समझौता बम ब्लास्ट, मुंबई ब्लास्ट, मुंबई ट्रेन हमले, जयपुर, वाराणसी बम ब्लास्ट होते रहेंगे और लोग हाथ पर हाथ धरे बैठे रहेंगे. मुंबई में हर बड़े हमले के बाद अगले दिन लोग घर से अपनी रोजी रोटी के लिए निकलते है और हमारे अभिनेता और नेता प्रजाति के लोग इसे मुंबई की जीवट शैली (स्पिरिट ऑफ़ मुंबई) कह कर बड़ी बेशर्मी से अपना पल्ला झाड लेते है. क्या ये मुंबई की स्पिरिट है या फिर मुंबईवासियों की मज़बूरी की हर रोज सर पर मंडराता हुआ खतरा देखते हुए भी पेट की खातिर उन्हें मजबूर हो घर से बहार निकलना पड़ता है ये जानते हुए भी की उनका शहर विकसित देशो के अन्य बड़े शहरो के मुकाबले कई गुना ज्यादा असुरक्षित है. हमारी इस नाकामी पर इसके सिवा और क्या कहा जा सकता है की बस... जय हो !!!

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