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हमारा असली दुश्मन कौन है

अगर देश में ये प्रश्न पूछा जाए कि "आप किसे देश का असली दुश्मन समझते है" तो ज्यादातर लोगो का उत्तर होगा, पाकिस्तान, देश के नेता, कसाब, अफजल. लेकिन क्या ये असली दुश्मन है. ये जानने से पहले २४ नवम्बर से लेकर एक पखवाड़े तक देश में हाल में और पूर्व में हुई मुख्य दुर्घटनाओं पर एक नज़र डाले. जिन घटनाओं ने देश को हिला कर रख दिया और आजकल हम उस दिन मोमबत्ती जला कर अपनी संवेदनाएं प्रकट कर अपने कर्तव्य से इतिश्री कर लेते है.

पिछले हफ्ते २६/११ को, "राष्ट्रीय शर्म दिवस पर", देश पर हुए आंतकी हमलो को एक साल पूरा हो गया. कुछ लोगो ने मोमबत्ती जला कर पिछले साल इसी दिन आतंकवाद के भेंट चढ़े शहीदों को याद किया, कुछ नेता सरीखे लोगो ने वोट के लिए जनता के बीच जा कर के अपने तथाकथित दुःख के ड्रामे का इजहार किया. देश में कुछ लोगो ने इस समय इस घटना को याद किया, कुछ ने शिल्पा शेट्टी की शादी की बारीकियों को चस्के ले कर पढ़ा तो कुछ ने मीडिया में राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल की सुखोई में बैठ कर उड़ान भरने को इतिहास रचने की संज्ञा को तवज्जू दी. कई लोग ऐसे भी थे जिन्होंने उस दिन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को अमरीकी राष्ट्रपति ओबामा के राजकीय अतिथि सत्कार और रात्रि भोज पर देख कर गुस्सा किया.
देश में कही नम आँखों में श्रद्धांजलि थी, कही मौन शोक संवेदनाएं तो कही क्षोभ कि क्यों अब तक कसाब को देश का मेहमान बना कर उसकी मिजाजपुर्सी की जा रही है. देश का नागरिक आज भी अच्छी तरह से जानता है कि देश में फ़ोर्स वन बन जाने से देश का नागरिक कोई विशेष सुरक्षित नहीं हुआ है. फ़ोर्स वन उन खामियों को शायद कुछ हद तक कम कर सके जो चुक २६/११ के हमले में आतंकियों से लोहा लेते समय हमारे सुरक्षा बलों से हुई थी. शायद इनके पास स्वचालित हथियार भी हो (वो बात अलग है कि जरुरत के वक़्त वे हथियार चलने लायक पाए जाते है या नहीं). लेकिन तब तक आतंकवादी अब इनसे एक कदम और आगे बढ़ चुके होंगे. ये चूहे बिल्ली का खेल यूँ ही चलता रहेगा. आम आदमी की बलि चढ़ेगी और नेता लोग सुरक्षा के नाम पर दोनों हाथो से लुटते हुए, अनाप शनाप पैसा बनाने का कोई मौका नहीं छोड़ेंगे.

२६/११ की बरसी के ठीक एक दिन पहले, 17 वर्षों की जाँच और 48 बार अवधि बढ़ने के बाद अंतत , ये लिब्रहान नाम का एक भुत, जिन्न की तरह बोतल से बहार निकल कर आ गया. लिब्राहन के इस भुत के बहार आने के समय पर कई अटकले लगाईं जा रही है. जब यह रिपोर्ट आई तब बिखरे हुए विपक्ष ने गन्ना किसानों के मामले में गज़ब का समन्वय दिखा रहे था और सभी दल एक स्वर में बोल रहे थे. मधु कोड़ा के भ्रष्टाचार का मामला झारखंड चुनावों के बीच छाया था, साथ ही स्पेक्ट्रम घोटाला भी केंद्र का सिरदर्द बना हुआ था. चूँकि ये रिपोर्ट जून में जस्टिस लिबरहान ने सरकार को सौंपी थी. फिर सरकार ने ये रिपोर्ट पिछले सत्र में क्यों पेश नहीं की. नवम्बर के सत्र के शुरु होते ही इसे क्यों नहीं पेश किया गया. ये सवाल बेशक सोचने पर मजबूर कर देते है. इस रिपोर्ट में भी कई रहस्यमय बाते भी है. उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव अतुल गुप्ता ने हाई कोर्ट में हलफ़नामा देकर कहा था कि अयोध्या विवाद से जुडी 23 फा़इलें गृह विभाग के एक विशेष कार्याधिकारी सुभाष भान साध के पास थीं जिनकी मृत्यु हो चुकी है और ये फाइले गुम हो गई है. खोजबीन करने पर से पता चलता है कि सुभाष भान साध की मृत्यु 30 अप्रैल 2000 को दिल्ली में जिस कथित रेल दुर्घटना में हुई थी उस पर उनके परिवार ने संदेह ज़ाहिर करते हुए सुनियोजित हत्या का आरोप लगाया था. सुभाष ने अस्पताल में अपने रिश्तेदारों को बताया था कि उसे दिल्ली स्थित तिलक ब्रिज स्टेशन के पास चलती ट्रेन से धक्का दिया गया था. हाईकोर्ट ने दिल्ली पुलिस को पूरे मामले की जांच के आदेश दिए थे. लेकिन अभी तक दिल्ली पुलिस की रिपोर्ट नही आई है. दूसरी और जहाँ रिपोर्ट में पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को दोषी ठहराया गया है वही कमीशन के अधिकारियो का कहना है कि वाजपेयी को कभी भी कमीशन ने पूछताछ के लिए तलब ही नहीं किया फिर उन्हें दोषी कैसे ठहराया जा सकता है.
अभी आम आदमी इन उलझी हुई गुत्थियों के बारे में कुछ सोचे इससे पहले २/३ दिसम्बर की वो भयावह रात आ गई जिसे आप और हम भोपाल गैस त्रासदी के नाम से जानते है. आज से पच्चीस साल पहले सन १९८४ में, दिसंबर की उस सर्द आधी रात में बेख़बर सो रहे भोपाल के बेगुनाह और मासूम लोगों को, कार्बाइड का ज़हर जिसे मिथाइल आइसोसाइनेट भी कहते है ने इंसानों को कीट-पतंगों की तरह मारकर, हजारो हँसते खेलते व्यक्तियों को लील लिया था. भोपाल गैस दुर्घटना में मरने वालों की संख्या 25 वर्षों में बढ़कर न जाने कितनी हो गई है. मगर 25 साल में कही कोई इंसाफ़ नहीं हो पाया है और अब तक एक भी गुनहगार को सज़ा नहीं हुई है.
भोपाल के वरिष्ट पत्रकार श्री राजकुमार केसवानी जी ने, इस दुर्घटना के करीब तीन साल पहले, नौ महीने की जी-तोड़ कोशिशों के बाद ये पाया था कि कार्बाइड का वह कारखाना एक बिना ब्रेक की गाड़ी की तरह चल रहा था. सुरक्षा के सारे नियमों की धज्जियां उड़ाता हुआ. १९ सितंबर, १९८२ को उन्होंने अपने साप्ताहिक अख़बार ‘रपट’ में लिखा ‘बचाइए हुज़ूर, इस शहर को बचाइए’. एक अक्तूबर को फिर लिखा ‘भोपाल ज्वालामुखी के मुहाने पर’. आठ अक्तूबर तो चेतावनी दी ‘न समझोगे तो आख़िर मिट ही जाओगे.’ जब देखा कोई इस संभावना को गंभीरता से नहीं ले रहा तो तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह को पत्र लिखा और सर्वोच्च न्यायालय से भी दख़ल देकर लोगों की जान बचाने का आग्रह किया. देश में आज तक आम आदमी के लिए कुछ हुआ है जो अब होता. नतीजा वही ढाक के तीन पात. अफ़सोस न कुछ होना था, और न ही कुछ. हाँ, हुआ तो बस इतना कि विधानसभा में सरकार ने इस ख़तरे को ही झुठला दिया और कार्बाइड को बेहतरीन सुरक्षा व्यवस्था वाला कारखाना क़रार दिया. उन्होंने फिर हिम्मत जुटाई और 16 जून, 1984 को देश के प्रमुख हिन्दी अख़बार ‘जनसत्ता’ में फिर यही मुद्दा उठाया. एक बार फिर सेइसकी अनदेखी हुई.

अभी भोपाल गैस त्रासदी को शायद दो तीन दिन लोग याद रखेंगे तब तक "बाबरी मस्जिद" को ढहाने के पंद्रह साल पुरे हो जायेंगे. उसके पीछे पीछे ११ दिसम्बर को संसद पर हुए हमले की बरसी आजाएगी.

तो कुल मिला कर सोचने वाली बात ये है कि असल में देश में आम आदमी का दुश्मन कौन है. क्या वो दुश्मन पाकिस्तान है, कसाब है, यूनियन कार्बाइड है, नेता है, हरामखोर सरकारी अफसर और बाबु है, समाज है, (अ)न्याय पालिका या (अ)न्याय की कुर्सी पर मरे हुए एक मूर्ति की तरह बैठे हुए ये तथाकथित न्यायमूर्ति है. आखिर हमारा असली दुश्मन है तो है कौन. मेरा मानना है कि ये उपरोक्त सब तो केवल कारण है जो हमारी उदासीनता का फायदा उठा कर हमारा इस्तेमाल कर रहे है. हमारा असली दुश्मन और कोई नहीं बल्कि हमारी अपनी अनुरागहीनता (उदासीनता) है

देश में कही भी कोई भी आदमी अपना काम निकलवाने के लिए रिश्वत देने में संकोच नहीं करता. अभी भी सन १८०० के कानून और १९५० के समय से चल रही फाइलों में रिकॉर्ड रखे जाते है हेराफेरी आसानी से हो सके. आम जनता बैठ कर तमाशा देखती है.आज पढ़ा लिखा आदमी वोट देने नहीं जाता क्योंकि वो इतना त्रस्त हो चूका है कि उसे लगता है कुछ बदलने वाला नहीं. वो चुनाव के दिन को छुट्टी का दिन मान कर वोट देने के बजाये पिकनिक जाना या घर पर आराम करना पसंद करता है. वोट देने वाले अक्सर वोट बैंक होते है जिनको आसानी से नोट या जात पांत का लालच दे कर ख़रीदा जा सकता है. ये ही कारण है की आज राजनीति में गुंडे मवाली आ गए है और जब गंजो के सर नाख़ून उग आये तो फिर तो "भारत भाग्य विधाता" के अलावा और कुछ गाया भी नहीं जा सकता है. उदासीनता के हालत ये है कि आदमी अपनी और अपने परिवार का पेट भरने के अलावा और कुछ न सोचता है और न ही सोचना चाहता है. वो ये मानने को तैयार नहीं है की अगर एक अच्छे समाज की नीव रख दी जायेगी तो उसकी और उसके आने वाली पीढ़ी की कई मुसीबते स्वत ही ख़त्म होजाएँगी.

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