महाभारत की पृष्टभूमि में महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित श्रीमदभगवद गीता को केवल एक धर्म ग्रन्थ कहना सूरज को दिया दिखलाने के समान है। आज हर रोज की भाग दौड़ में त्रस्त हुआ मनुष्य जब खुद को असहाय और असहज पाता है तो ऐसे में,श्रीमद्भगवद्गीता एक या ग्रन्थ न होकर, मनुष्य को, सफलता पूर्वक जीवन जीने की कला सिखाने वाली संजीवनी का काम करती है.
आज आप और हम, अर्जुन बन कर, अनवरत हर रोज अपने जीवन की महाभारत लड़ रहे है. हमारे इस शरीर रूपी रथ में पांच घोड़े जो है वो हमारी पाँच ज्ञानेन्द्रिय (आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा) है. ये इन्द्रियाँ हर वक्त रूप, रस, श्रवन, गंध और स्पर्श में फँस कर भटकने को लालायित रहती है. ऐसे में हमारी बुद्धि ही हमारी सारथी (भगवान श्री कृष्ण) का काम करती है और मन के वशीभूत हुए इन चंचल घोड़ो को सही मार्ग पर प्रेरित करने के प्रयास में लगी रहती है। महाभारत की तर्ज पर आज अच्छाई के प्रतीक पांडव गिनती के चार पांच ही रह गए है पर बुराई के प्रतीक कौरव आज सर्वत्र और सहस्त्र मात्रा में है.
फ़ैसला करने में सक्षम लोग आज या तो धृतराष्ट्र के समान स्वयं ही अंधे हो चुके है, या गांधारी की तरह आँख पर पट्टी बाँध कर कानून की मूर्ति के रूप में विराजमान है। जो लोग देखने में असमर्थ नही है वो पुत्र मोह में शर्त त्याग कर द्रोण बन कर बुरे का साथ देने को अमादा है।
जिस तरह श्रीमाद्भाग्वाद गीता आज के मानव के व्यक्तिगत जीवन में प्रासंगिक है, ठीक उसी तरह ये आज के आधुनिक कोर्पोरेट युग के लिए भी ज्ञान का भण्डार है। आइये देखे की श्रीमद्भगवद्गीता से आज का मेनेजर और प्रबंधन क्या क्या शिक्षा ले सकता है।
श्रीमद्भगवद्गीता के अठारह अध्याय मुख्यत तीन भागो में विभाजित किये गए है।
- अध्याय एक से छह को कर्मयोग कहा गया है जहाँ निस्वार्थ कर्म के द्वारा अनुशासन की प्रशंसा की गई है।
- अध्याय सात से बारह ज्ञानयोग की श्रेणी में आता है जहाँ स्व-ज्ञान के द्वारा अनासक्ति को समझाया गया है।
- अंतत अध्याय तेरह से अट्ठारह भक्तियोग के सूत्र को प्रतिपादित करता है जहाँ ईश्वर की दया प्राप्त करने के लिएसम्पुर्ण समर्पण की बात कही गई है.
साफ़ सपाट लफ्जो में कर्म के द्वारा ही ज्ञान अर्जित किया जा सकता है, और ज्ञानी ही भक्ति कर सकता है.
अध्याय | सारांश | व्यापार में प्रासंगिकता | |
प्रबंधक | कंपनी | ||
1. अर्जुनविषादयोग | आत्मसंदेह : स्वजनों के समुदाय में गुरुजन, ताऊ-चाचे, लड़के और दादा, मामा, ससुर, पौत्र, साले आदि को देखकर मोह से व्याप्त हुए अर्जुन का कायरता, स्नेह और शोक के सागर में डूब कर युद्ध न करने का निश्चय करना | अत्यधिक विश्लेषण में समय नष्ट कर, अवसर आने पर हथियार डाल देना. | केवल मात्रात्मक विश्लेषण ही कारोबार में सफलता का मापक नहीं है. |
2. सांख्ययोग | आध्यात्म की अवस्था : मृत्यु केवल एक भ्रम है. इच्छा शक्ति, भौतिक पदार्थो का भोग करते हुए, अविनाशी आत्मा एक शरीर से दुसरे शरीर को वस्त्र की तरह बदलती है. "ये मैं हूँ" और "ये मेरा है" के इन, व्यक्तिगत भ्रामक, अहम् से मुक्ति जरुरी है. | बार बार के प्रबंधन के बदलने के पश्च्यात भी कंपनी चालू रहती है. | व्यापर को अविरल चलते रहने के लिए उत्तराधिकारी के चयन में नियमति रूप से ज्ञान का हस्तांतरण चलता रहता है. दिवालिया, विलय, अधिग्रहण कंपनी के होते है, व्यक्तिगत नहीं. |
3. कर्मयोग | अपने समस्त कर्म को सिर्फ भगवान् के लिए करता हुआ व्यक्ति स्वयं भी समस्त भोगो को प्राप्त करता है, और साथ ही दुसरो के लिए भी प्रेरणादायक बन सकता है. | अपनी खास योग्यता को समय की मांग के अनुसार ढाल कर अपने करियर को खास ऊंचाई पर ले कर जाना. | सामूहिक सामाजिक जिम्मेदारियों का निर्वाह करते हुए अपने और अपने आस पास के समाज के विकास में भागिदार होना. |
4. ज्ञानकर्मसंन्यासयोग | गुरु के बिना मार्गदर्शन संभव नहीं है. निष्काम कर्म की मंजिल ज्ञानोपार्जन है. | आजन्म अध्ययन में लीन रहना. | उद्योग की नई तकनीक में प्रासंगिक रहते हुए अवसर को बाँटना, ताकि विदेशी प्रतिद्वन्द्वीयो से मुकाबला सरल हो सके. |
5. कर्मसंन्यासयोग | कार्य शुद्धि. कर्ता और कार्य को अलग अलग कर के देखना और हर कार्य के फल को ईश्वर प्रदत्त मान कर ग्रहण करना. | फल का हिस्सा सबको मिलेगा, ये मानते हुए, सबके कल्याण के लिए अपने कार्य में, लीन होना. | समय के अनुसार बदलते हुए और अपने को नवीन रखते हुए, विश्वास के साथ सहयोगी भाव से प्रतिस्पर्धा करना. |
6. आत्मसंयमयोग | चिंता के द्वारा बुद्धि को स्थिर कर मोक्ष की और अग्रसर होना | महत्वपूर्ण कार्य सूचक (Key Performance Indicators / KPI) का निरंतर मूल्यांकन करते रहना. | रणनीति का सरंचनात्मक रूप से क्रियान्वन करना पर हमेशा एक बैकअप तैयार कर के रखना . |
7. ज्ञानविज्ञानयोग | पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार ये आठ प्रकार से विभाजित प्रकृति (अन्धकार) ही सब कुछ है जब तक उसे पुरुष (तेज) प्रकाशित नहीं कर्ता. तीन प्रकार के गुणों से ही तत्व और भ्रमजाल का निर्माण होता है. | हक़ीक़त से परे मत हो, अपनी सीमा पहचानो और उसी दायरे में रह कर अपना कार्य संपन्न करो. | अपनी ताकत, कमजोरी, अवसर और आशंकाओ (Strength, Weakness, Opportunities, Threat) को पहचानो. |
8. अक्षरब्रह्मयोग | परम तत्व में विलय हो जाना. बार बार जन्म मरण के चक्र से मुक्त होकर मोक्ष की और अग्रसर होना. | परिवार, कार्य, समाज में सामंजस्यता बैठाते हुए सफल जीवन की और अग्रसर होना. | विभिन्न इकाइयों को मिल जुल कर संगठन के सामूहिक लक्ष्य की और अग्रसर होना. |
9. राजविद्याराजगुह्ययोग | समर्पण : अधम व्यक्ति भी अगर सच्चे मन से प्रभु शरण में आता है तो प्रभु उसे नहीं त्यागते । | पवित्र इरादे से कार्य करना विद्या का सही उपयोग है. | गुणवत्ता के साथ उत्पाद पर फोकस करते हुए, अपने ग्राहक, कर्मचारियों के प्रति संवेदनशील और ईमानदार रहना. |
10. विभूतियोग | अनुग्रह : सम्पूर्ण आध्यामिक ज्ञान का केंद्र भगवान् है. जो भगवान् से प्यार करता है उसकी सब भ्रान्ति मिट जाती है और वो खुशहाली की और अग्रसर होता है. | सही मार्गदर्शन के लिए सलाह हमेशा उपलब्ध है, उसे इस्तेमाल करने में मत हिचकिचाओ . | बाजार की बदलती मांग के अनुसार प्रासंगिक रहे, क्योंकि परिवर्तन संसार का नियम है. |
11. विश्वरूपदर्शनयोग | एक रूप : श्री कृष्ण ने अर्जुन के सामने अपने कई विभिन्न रूप का दर्शन दिया, जिसमे पूरा ब्रम्हांड समाया था. | सब कार्य में ईश्वर को मध्य में रख कर सर्वत्र भगवद्बुद्धि हो जाना और अपराध करने वाले में भी वैरभाव नहीं रखना | बड़ा सोचना, अपने व्यापर का विश्व भर में विस्तार करने में प्रयासरत रहना |
12. भक्तियोग | श्रेष्ठ गुण : विश्वसनीय व्यक्ति सदा मित्र, शत्रु, सहनुभूति, संवेदना, स्तुति और निंदा में सम रहता है. सुख उसे ख़ुशी नहीं दे सकता और दुःख उसे परेशान नहीं कर सकता. वो हर परिणाम को ईश्वर का प्रसाद मान कर ग्रहण करता है. | शिष्टता का परिचय सभ्य समाज में आवश्यक है. | छोटे समय में हुए नफा या नुकसान से ज्यादा विचलित न होकर, पूर्ण निष्ठा से अपना कर्म करते रहे. |
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभागयोग | अनासक्ति : मैले वातावरण के होते हुए भी जिस तरह गगन स्वच्छ रहता है, ठीक वैसे ही विशुद्ध रूप में ईश्वर भी सभी प्राणियों में शुद्ध रूप से निवास करते है. | साथ में काम करते हुए भी प्रत्येक के निजता का सम्मान करे | मिल जुल कर अपने अहं को दूर रखते हुए निर्मल मन से व्यवसाय को आगे ले जाए |
14. गुणत्रयविभागयोग | ज्ञानी विद्वान् से बेहतर है. गुणातीत पुरुष अटल और निष्पक्ष हो जाता है. | निष्कपट मन से ये मान कर कार्य करना कि असंभव कुछ भी नहीं होता. | अनेकता में एकता. व्यापार को निर्विघ्न चलाने के लिए स्वतंत्र विचारों वाले व्यक्ति के प्रति धैर्य का भाव. |
15. पुरुषोत्तमयोग | आत्मा : प्रभु प्रत्येक व्यक्ति के शारीर में आत्मा के रूप में विराजमान है. आत्मा शरीर के धारण करने से लेकर वैकुण्ठ गमन तक सब के साथ रहती है. | पद के साथ ही प्रतिष्ठा आती है. पद छूटने पर वो प्रतिष्ठा, मान और सम्मान नही रह जाता. | व्यापार करने के तौर तरीको से कंपनी की साख बनती है. |
16. दैवासुरसम्पद्विभागयोग | दैवीय और आसुरी प्रकृति : प्रत्येक मनुष्य में सत, रज और तम गुण होते है. गुणों के बाहुल्यता और न्यूनता से ही व्यक्ति देव, मानव और पशु तुल्य कहलाता है. | अपने निज स्वार्थ के लिए दुसरे सह कर्मियों का नुकसान मत करो. | कंपनी में सभी कर्मचारियों के लिए सामान कानून लागु हो, सभी को एक तराजू पर तोलो और कार्यप्रणाली की नियमित समीक्षा करते रहो. |
17. श्रद्धात्रयविभागयोग | भरोसा : प्रत्येक को अपनी पूजा में भरोसा हो क्योंकि भरोसे के बिना कोई भी आध्यात्मिक उन्नति मुमकिन नहीं है. | भरोसे के बिना कोई भी कार्य संभव नहीं है इसलिए मार्गदर्शक बनकर अपने सहकर्मियों का भरोसा जीतो भी. | प्रबंधन उद्देश्य के साथ करो. |
18. मोक्षसंन्यासयोग | त्याग : निष्ठापूर्वक अपने कार्य को करने के साथ मन, वाणी और बुद्धि पर संयम करके प्रत्येक व्यक्ति पूर्णता को प्राप्त कर सकता है. गीता का ज्ञान केवल उसी के लिए है जिसकी इसमें श्रद्धा हो. | सभी बाते सभी कर्मचारियों के लिए नहीं होती. | केवल जरुरत के मुताबिक उतनी ही सुचना उसी को प्रसारित करो जो इसे समझ सके और इससे लाभान्वित हो सके. |
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