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लोकतंत्र का महापर्व

लीजिये साहब विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र का महापर्व चुनाव शुरू हो गया. हर तरफ सब अखबार, टीवी न्यूज़ चैनल सब के सब इस अर्धकुम्भीय महापर्व के बारे में बढ़ चढ़ कर बखान करने में लगे है. आज दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के आम चुनाव का इंतज़ार है. अमरीकी चुनाव के बाद दुनिया की नज़रें भारत के चुनाव पर लगी हुई हैं. लेकिन सोचने वाली बात ये है की आज ये देश अपने आप को प्रजातंत्र इसीलिए मान रहा है क्योंकि यहाँ समय समय पर चुनाव होते रहते हैं, चाहे स्कूल हो या न हो, शिक्षा का दूर दूर से वास्ता न हो, स्वस्थ्य सुविधा बिलकुल न हो लेकिन चुनाव ज़रूर हो. सारे छंटे हुए बदमाश गुंडे नेता बन कर सकारी सहुलियतों को भोगे, नौकरशाह जिनको जनता के काम करने के लिए पैसे मिलते है वो इन नेताओ के तलुवे चाटे, अदालत में सवा सौ साल से लंबित मामले निपटाए नहीं जा सके, लोगो को न्याय के नाम पर परेशानी के सिवा कुछ नहीं मिले लेकिन लोकतंत्र की रक्षा करने के लिए चुनाव समय पर हो.

चुनाव आयोग :

आइये सरकारी और हकीक़त के चश्मे से इस लोकतंत्र को देखे. 543 निर्वाचित क्षेत्रो के लिए 71 करोड़ 40 लाख मतदाताओ का 8,28,404 मतदान केन्द्रों पर 13,68,430 वोटिंग मशीनों के जरिये 61 लाख पुलिस और सरकारी कर्मचारियों के द्वारा 1005 राजनितिक पार्टियों के प्रत्याक्षियो का चुनाव करवाना अपने आप में एक बड़ी बात है और इसके लिए चुनाव आयोग से श्रेय नहीं लिया जा सकता.

ये बात अलग है की चुनाव के चलते कई प्रदेश में लोग सड़क पर गाड़ी निकालने के बजाए घर में ही गाड़ी रखना पसंद करते है. हमेशा चिंता रहती है कि अगर आपने गाड़ी निकाली तो सड़कों पर कहीं भी पुलिस की गाड़ी मिल सकती है और उसमें बैठे अधिकारी तुरंत आपकी गाड़ी पर पोस्टरनुमा आदेशपत्र चिपका देते हैं. इसमें चुनाव ड्यूटी के लिए किस तारीख़ को कितने बजे पहुंचना है, इसका विवरण होता है. यहाँ तक की बारात की गाड़ियों तक को नहीं बख्शा जाता है और ना नुकुर करने पर गाड़ी जब्त करके बारातियों को पैदल ही आगे बढा दिया जाता है. कई जगह तो कुछ लोग अपने गैराज में ही रखी गाड़ी के पहिए निकाल कर अलग रख देते है ताकि गाड़ी की पुलिस से हिफाजत की जा सके.

लोकतंत्र की राजनीति :
दिल्ली में सत्ता के गलियारों के गिर्द घूमते हुए जो लोकतंत्र हमें दिखाई देता है, उससे अलग एक और तस्वीर है दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र की. यह लोकतंत्र रेखा और विशाल की सच्चाई वाला है और करोड़ों लोग इसी लोकतंत्र में जीने को मजबूर हैं. सोनभद्र ज़िले की राबर्ट्सगंज लोकसभा सीट के घसिया बस्ती का एक गाँव जो ज़िला मुख्यालय से महज़ तीन किलोमीटर के फ़ासले पर स्थित है. इस गाँव में भूख और कमज़ोरी से 18 बच्चे मर चुके है और गाँव में घुसते ही भारतीय लोकतंत्र की एक कड़वी नंगी सच्चाई को बेपर्दा करता हुआ दिखता है भूख से मरे 18 बच्चों का स्मारक.

देश में चुनाव छोटा हो या बड़ा सब पैसे और ताकत का गन्दा खेल बन कर रह गया है. नवम्बर 2008 में दिल्ली की विधानसभा के चुनावो में भारतीय जनता पार्टी के 19, कांग्रेस के 19 और बहुजन समाज पार्टी के 15 उम्मीदवारों पर आपराधिक मामले दर्ज़ थे जिसमे हत्या, बलात्कार जैसे गंभीर मामले भी शामिल थे. ये उम्मीदवार सम्पत्ति के मामले में किसी से पीछे नहीं थे. इन चुनावो के मैदान में 153 करोड़पति उम्मीदवार थे और इनमें से कई ने आयकर विभाग का स्थायी खाता संख्या यानी पैन तक नहीं दिया. छह उम्मीदवार ऐसे थे जिनकी निजी सम्पत्ति 90 लाख से ज़्यादा थी. लेकिन वह कहते हैं कि उनके पास वाहन तक नहीं है.

इस लोकतंत्र से किसी का विकास हुआ हो या नहीं हुआ हो, इन जनप्रतिनिधियों का विकास ज़रूर हुआ है. पिछले पाँच वर्षों में औसत निजी सम्पत्ति विकास दर के हिसाब से देश की राजधानी के विधायकों की निजी सम्पत्ति में 211 फ़ीसदी इजाफ़ा हुआ है. यानी हर विधायक ने 1.8 करोड़ रूपए कमाए. कहाँ से कमाया और कैसे आया यह धन, सवाल सोचने पर मजबूर कर देता है.

देश की सर्वोच्च संसथान या लोकतंत्र का मंदिर भी कोई ज्यादा पीछे नहीं था. हमारी 14वीं लोक सभा के 543 सांसदों में से 120 यानी 22 फ़ीसदी सांसदों के ख़िलाफ़ आपराधिक मामले दर्ज थे. केवल अपराध ही नहीं भर्ष्टाचार के मामले में भी हमारे नेता कही कोई कमतर नहीं है. दुनियाभर में भ्रष्टाचार पर नज़र रखने वाले ट्रांसपरेंसी इंटरनेशनल का सर्वेक्षण कहता है कि भारत में 76 फ़ीसदी लोग यह मानते हैं कि राजनेता भ्रष्ट होते हैं. उन्हें पाँच में से 4.75 अंक मिले हैं. इसका मतलब यह कि भ्रष्टाचार इंडेक्स में भारतीय राजनेता काफ़ी ऊपर हैं. यही कारण है की देश से बहार अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में भारत की पहचान अब भी अत्यंत ग़रीब और सामाजिक संघर्षों से जूझ रहे देश के रूप में होती है.

अब आप ही बतलाइए की इस देश को नेता, नौकरशाह और न्यायपालिका बर्बाद करके छ दशक से दीमक की तरह चाट रहे हो उसका क्या एक दो चुनाव से कुछ भला हो सकता है. राजनेताओ की फिरकापरस्ती पर चर्चा फिर कभी करूँगा.

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