तब और अब
तब दोस्तों से घंटो बाते होती थी,
अब मोबाइल SMS से हाय हैलो होती है
तब क्रिकेट का बैट हाथ में होता था और सड़क पर क्रिकेट खेलने लग जाया करते थे,
अब लेपटोप और मोबाइल साथ में होता है और सड़क पर ही टिपियाने लग जाते है
तब शांत खड़े होकर चिड़िया और कोयल की आवाज़ सुना करते थे,
अब कंप्यूटर पर mpeg फाइल सुनते है
तब रात में छत पर लेट कर चमकते तारे देखा करते है,
अब काम के टेंशन में रात में तारे नज़र आते है
तब शाम को दोस्तों के साथ बैठ कर गपशप करते है,
अब चैट रूम में बनावटी लोगो से बाते करते है
तब ज्ञान प्राप्ति के लिए पढाई करते थे,
अब नौकरी बचाने के लिए पढ़ना पड़ता है
तब जेब खाली पर दिल उमंगो से भरा होता था,
अब जेब ATM, Credit/Debit card से भरी है लेकिन दिल खाली है
तब सड़क पर खड़े हो कर भी चिल्ला लेते थे,
अब घर में ही जोर से नहीं बोल पाते
तब लोग हमें ज्ञान का पाठ पढाते थे,
अब हम सबको ज्ञान देते फिरते है
वाह री आधुनिकता !! सोचो तुमने और मैंने क्या पाया इंसान बन के....
अब मोबाइल SMS से हाय हैलो होती है
तब क्रिकेट का बैट हाथ में होता था और सड़क पर क्रिकेट खेलने लग जाया करते थे,
अब लेपटोप और मोबाइल साथ में होता है और सड़क पर ही टिपियाने लग जाते है
तब शांत खड़े होकर चिड़िया और कोयल की आवाज़ सुना करते थे,
अब कंप्यूटर पर mpeg फाइल सुनते है
तब रात में छत पर लेट कर चमकते तारे देखा करते है,
अब काम के टेंशन में रात में तारे नज़र आते है
तब शाम को दोस्तों के साथ बैठ कर गपशप करते है,
अब चैट रूम में बनावटी लोगो से बाते करते है
तब ज्ञान प्राप्ति के लिए पढाई करते थे,
अब नौकरी बचाने के लिए पढ़ना पड़ता है
तब जेब खाली पर दिल उमंगो से भरा होता था,
अब जेब ATM, Credit/Debit card से भरी है लेकिन दिल खाली है
तब सड़क पर खड़े हो कर भी चिल्ला लेते थे,
अब घर में ही जोर से नहीं बोल पाते
तब लोग हमें ज्ञान का पाठ पढाते थे,
अब हम सबको ज्ञान देते फिरते है
वाह री आधुनिकता !! सोचो तुमने और मैंने क्या पाया इंसान बन के....
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Bhavesh (भावेश )
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Friday, September 24, 2010
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सफलता का मूलमंत्र...
आज के आधुनिक युग में हमने खोया ज्यादा है और पाया कम. इस शास्वत सत्य के बारे में मैंने अपनी पिछली पोस्ट में लिखा था.
इन सबका मुख्य कारण ये है कि हम आज की इस आपाधापी में न केवल अपने आप को जडो से काट चुके है अपितु हम अपने संस्कारो को भी भूल चुके है. हमारे शास्त्र कहते है "मातृ देवो भव, पित्र देवो भव" यानि माता पिता ही साक्षात् देवता स्वरुप है.
लेकिन अफ़सोस आज के समय में पाश्चात्य संस्कृति की तरह हमारे देश में कई बुजुर्गो को अपने "जीवन की संध्या" ओल्ड एज होम में गुजारनी पड़ रही है. उन वृद्धाश्रम में रह रहे माँ बाप कि गलती शायद ये थी कि उन्होंने अपने बच्चे को पैदा होते ही अनाथाश्रम में नहीं डाला, वर्ना उन्हें शायद आज ये दिन नहीं देखने पड़ते.
तुलसीदासजी ने रामचरित मानस में लिखा है
"मानहिं मातु पिता नहिं देवा। साधुन्ह सन करवावहिं सेवा॥
जिन्ह के यह आचरन भवानी। ते जानेहु निसिचर सब प्रानी॥"
जो माता पिता की सेवा नहीं करते या साधू से सेवा करवाते है, इस तरह का आचरण करने वाले ही निसिचर की श्रेणी में आते है.
अंग्रेजी में कहते है "A Picture is worth a thousand words". आइये नीचे कुछ तस्वीरों के माध्यम से माता-पिता का हमारे जीवन में स्थान और महत्व समझने का प्रयास करे.
इन सबका मुख्य कारण ये है कि हम आज की इस आपाधापी में न केवल अपने आप को जडो से काट चुके है अपितु हम अपने संस्कारो को भी भूल चुके है. हमारे शास्त्र कहते है "मातृ देवो भव, पित्र देवो भव" यानि माता पिता ही साक्षात् देवता स्वरुप है.
लेकिन अफ़सोस आज के समय में पाश्चात्य संस्कृति की तरह हमारे देश में कई बुजुर्गो को अपने "जीवन की संध्या" ओल्ड एज होम में गुजारनी पड़ रही है. उन वृद्धाश्रम में रह रहे माँ बाप कि गलती शायद ये थी कि उन्होंने अपने बच्चे को पैदा होते ही अनाथाश्रम में नहीं डाला, वर्ना उन्हें शायद आज ये दिन नहीं देखने पड़ते.
तुलसीदासजी ने रामचरित मानस में लिखा है
"मानहिं मातु पिता नहिं देवा। साधुन्ह सन करवावहिं सेवा॥
जिन्ह के यह आचरन भवानी। ते जानेहु निसिचर सब प्रानी॥"
जो माता पिता की सेवा नहीं करते या साधू से सेवा करवाते है, इस तरह का आचरण करने वाले ही निसिचर की श्रेणी में आते है.
अंग्रेजी में कहते है "A Picture is worth a thousand words". आइये नीचे कुछ तस्वीरों के माध्यम से माता-पिता का हमारे जीवन में स्थान और महत्व समझने का प्रयास करे.
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Bhavesh (भावेश )
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Tuesday, September 14, 2010
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समाज
सोचो तुमने और मैंने क्या पाया इंसान बन के...
कहते है कि मानव जीवन अमूल्य है, इसे प्राप्त करना सहज नहीं है लेकिन क्या हमने सोचा कि आज की इस आपाधापी में हमने इंसान बन कर क्या पाया है. आइये जरा इसका हिसाब करके देखते है :
आज हमारे पास बड़ी बड़ी इमारते तो है लेकिन सहनशक्ति थोड़ी सी है.
चौड़े रास्ते तो है लेकिन मानसिकता संकीर्ण है
हम खर्चते बहुत है लेकिन पाते कम है,
खरीदते ज्यादा है लेकिन उपयोग कम करते है.
हमारे पास बड़े मकान लेकिन छोटे परिवार है,
ज्यादा सुविधाए लेकिन कम समय है,
ज्यादा डिग्रियां है लेकिन कम समझ है,
ज्ञान अधिक है लेकिन परखने की शक्ति कम है,
दवाइयाँ बहुत है लेकिन तंदुरुस्ती कम है,
विशेषज्ञ ज्यादा है और मुसीबते भी ज्यादा ही है.
हमने अपने हक तो बड़ा दिए है लेकिन मूल्य खो दिए है.
हम बोलते बहुत है, नफरत ज्यादा करते है और सोचते कम है.
हमने जीने के तरीके खोज लिए लेकिन हम मानवता को भूल गए.
हमने जिंदगी में कई साल जोड़ दिए लेकिन हम किसी भी साल को जिंदगी से नहीं जोड़ पाए.
हम चाँद पर जा कर आ गए लेकिन सड़क पार पडोसी से नहीं मिल पाए
हमने धरती के बहार अंतरिक्ष पर तो विजय प्राप्त कर ली लेकिन खुद अपने अंतर्मन को नहीं जीत पाए
हमने हवा को साफ़ कर दिया लेकिन आत्मा को प्रदूषित कर दिया
हमने परमाणु को भी तोड़ दिया लेकिन अपनी सोच को नहीं छोड़ पाए
आज तनख्वाह ज्यादा हो गई है लेकिन सदाचार कम हो गया है
हम ज्यादा मात्रा में और कम गुणवत्ता में विश्वास करने वाले हो गए है.
लोग बलिष्ठ शरीर और कमजोर चरित्र वाले हो गए है जिन्हें फायदे में ज्यादा और संबंधो में कम विश्वास है.
ये वो समय है जहाँ विश्व शांति की बात होती है लेकिन गृह्कलेश ही खत्म नहीं होते, अवकाश ज्यादा और प्रसनत्ता कम रहती है, ये दोहरी तनख्वाह और ज्यादा तलाक होते है, विशिष्ट महलनुमा मकान है, लेकिन टूटे हुए घर है.
आज के मानव के पास दिखाने को गर्व बहुत है लेकिन वो अंदर से काफी हद तक खाली है. ये दुर्गति शायद इसलिए है क्योंकि हम शायद सफलता का मूलमंत्र भूल चुके है.
(चित्र : साभार गूगल)
आज हमारे पास बड़ी बड़ी इमारते तो है लेकिन सहनशक्ति थोड़ी सी है.
चौड़े रास्ते तो है लेकिन मानसिकता संकीर्ण है
हम खर्चते बहुत है लेकिन पाते कम है,
खरीदते ज्यादा है लेकिन उपयोग कम करते है.
हमारे पास बड़े मकान लेकिन छोटे परिवार है,
ज्यादा सुविधाए लेकिन कम समय है,
ज्यादा डिग्रियां है लेकिन कम समझ है,
ज्ञान अधिक है लेकिन परखने की शक्ति कम है,
दवाइयाँ बहुत है लेकिन तंदुरुस्ती कम है,
विशेषज्ञ ज्यादा है और मुसीबते भी ज्यादा ही है.
हमने अपने हक तो बड़ा दिए है लेकिन मूल्य खो दिए है.
हम बोलते बहुत है, नफरत ज्यादा करते है और सोचते कम है.
हमने जीने के तरीके खोज लिए लेकिन हम मानवता को भूल गए.
हमने जिंदगी में कई साल जोड़ दिए लेकिन हम किसी भी साल को जिंदगी से नहीं जोड़ पाए.
हम चाँद पर जा कर आ गए लेकिन सड़क पार पडोसी से नहीं मिल पाए
हमने धरती के बहार अंतरिक्ष पर तो विजय प्राप्त कर ली लेकिन खुद अपने अंतर्मन को नहीं जीत पाए
हमने हवा को साफ़ कर दिया लेकिन आत्मा को प्रदूषित कर दिया
हमने परमाणु को भी तोड़ दिया लेकिन अपनी सोच को नहीं छोड़ पाए
आज तनख्वाह ज्यादा हो गई है लेकिन सदाचार कम हो गया है
हम ज्यादा मात्रा में और कम गुणवत्ता में विश्वास करने वाले हो गए है.
लोग बलिष्ठ शरीर और कमजोर चरित्र वाले हो गए है जिन्हें फायदे में ज्यादा और संबंधो में कम विश्वास है.
ये वो समय है जहाँ विश्व शांति की बात होती है लेकिन गृह्कलेश ही खत्म नहीं होते, अवकाश ज्यादा और प्रसनत्ता कम रहती है, ये दोहरी तनख्वाह और ज्यादा तलाक होते है, विशिष्ट महलनुमा मकान है, लेकिन टूटे हुए घर है.
आज के मानव के पास दिखाने को गर्व बहुत है लेकिन वो अंदर से काफी हद तक खाली है. ये दुर्गति शायद इसलिए है क्योंकि हम शायद सफलता का मूलमंत्र भूल चुके है.
(चित्र : साभार गूगल)
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Bhavesh (भावेश )
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Thursday, September 09, 2010
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समाज
जीमेल का नया प्रायोरिटी इन्बोक्स
गूगल हमेशा ही कुछ नया कर दिखाने में अग्रणी रहा है. इसी तर्ज पर चलते हुए गूगल ने हाल ही में जीमेल में एक नई विशेषता जोड़ी है और जिसका नाम दिया है "प्रायोरिटी इन्बोक्स" .
अगर आप लोग जीमेल का इस्तेमाल करते है तो आप ने गौर किया होगा कि निचे दिखाए हुए चित्र की तरह आपके भी जीमेल के हेडर में अब आपको लाल रंग का "प्रायोरिटी इन्बोक्स बीटा" दिखाई दे रहा है.
इसका सुविधा का मुख्य उद्धेश्य ये है की अगर आपके पास रोजाना बहुत सारे मेल आते है और आप समय की कमी के चलते सब मेल नहीं पढ़ना चाहते तो जीमेल आपके लिए उन मेल को अलग कर देगा जो प्राथमिकता वाले होंगे. आप चाहे तो उन्हें चिन्हित करके (स्टार लगा कर) बाद में पढ़ने के लिए भी अलग रख सकते है. प्रायोरिटी इन्बोक्स कैसे कार्य करता है और इसमें क्या क्या फीचर्स है, इस बारे में विस्तृत से जानने के लिए आप ये नीचे दिया हुआ विडियो देखे और इस फीचर को इस्तेमाल कर व्यर्थ में खराब होने वाले समय की बचत करे.
अगर आप लोग जीमेल का इस्तेमाल करते है तो आप ने गौर किया होगा कि निचे दिखाए हुए चित्र की तरह आपके भी जीमेल के हेडर में अब आपको लाल रंग का "प्रायोरिटी इन्बोक्स बीटा" दिखाई दे रहा है.
इसका सुविधा का मुख्य उद्धेश्य ये है की अगर आपके पास रोजाना बहुत सारे मेल आते है और आप समय की कमी के चलते सब मेल नहीं पढ़ना चाहते तो जीमेल आपके लिए उन मेल को अलग कर देगा जो प्राथमिकता वाले होंगे. आप चाहे तो उन्हें चिन्हित करके (स्टार लगा कर) बाद में पढ़ने के लिए भी अलग रख सकते है. प्रायोरिटी इन्बोक्स कैसे कार्य करता है और इसमें क्या क्या फीचर्स है, इस बारे में विस्तृत से जानने के लिए आप ये नीचे दिया हुआ विडियो देखे और इस फीचर को इस्तेमाल कर व्यर्थ में खराब होने वाले समय की बचत करे.
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Bhavesh (भावेश )
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Friday, September 03, 2010
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तकनीकी
क्यों पाले हम आस्तीन में सांप
बचपन में जब कहावत सुना करते थे तो कभी अहसास ही नहीं हुआ की हमारे पूर्वज लोगो ने इनमे कैसे "गागर में सागर" भर इन एक दो पंक्तियों से कितने ज्ञान की बाते आने वाली पीढ़ी के लिए लिख छोड़ी है.
आपने और हम सबने सुना है "यथा राजा तथा प्रजा". आज देश के नेता ही देश के राजा है और इन लिफाफों को देख कर ही मजमून का अंदाज़ा लग जाता है. यद्यपि ये बात बिलकुल सही है की सौ करोड़ की आबादी में सब एक सरीखे नहीं हो सकते लेकिन अधिकतर लोग क्या चाहते है उसका तो अंदाजा हो ही जाता है हमारे इन जनप्रतिनिधियों को देख कर. हमारे देश के ये जयचंद या फिर संसद में जानवरों के झुण्ड सा बर्ताव करती शिखंडियो की इस फौज ने देश के जनता को भी शिखंडी ही बना छोड़ा है.
मुद्दे पर आते है. आज इनकी बेवकूफी भरी एक और खबर पढ़ी और पढ़ कर खून खौल उठा. कल यानि गुरूवार को भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पाकिस्तानी प्रधान मंत्री युसुफ़ रज़ा गिलानी से फ़ोन पर बातकर पाकिस्तान में आई विनाशकारी बाढ़ में मदद की पेशकश दोहराई थी. उस के बाद पाकिस्तानी सरकार ने भारत की मदद स्वीकार करने का फ़ैसला किया. उल्लेखनीय है की करीब एक हफ़्ते पहले भारत सरकार ने पाकिस्तान के लिए 50 लाख डॉलर की रकम बतौर मदद देने की पेशकश की थी जिसके जवाब में पाकिस्तानी सरकार ने भारत का शुक्रिया तो अदा किया था लेकिन इस मदद को स्वीकार करने पर सोच विचार करने की बात कही थी. न्यूयॉर्क में पाकिस्तानी विदेश मंत्री शाह महमूद क़ुरैशी ने भारत सरकार की तारीफ़ की और कहा, “पाकिस्तान ने उसूली तौर पर भारत की मदद की पेशकश को क़बूल करने का फ़ैसला कर लिया है."
हम सब जानते है कि इन दिनों पाकिस्तान में प्रकृति का प्रकोप बरसात के रूप में कहर बन कर बरस रहा है. दिन प्रतिदिन हालत बद से बदतर हो रहे है और लाखो की संख्या में लोग प्रभावित हुए है. अमेरिका पोंगा पंडित बन कर इस बार भी अपने स्वयं की स्वार्थ पूर्ति के लिए पाकिस्तान को आने दो आने की लोलीपोप दे रहा है और दुसरे देशो से भी इसी तरह की भीख देने को कह रहा है.
वैसे भी कहते है कि "दान भी पात्र देख को कर ही दिया जाता है". ये बात जरुर विचारणीय है कि क्या पाकिस्तान वाकई मदद का हक़दार है. ज्ञातव्य रहे मैं यहाँ पर वहां के आम नागरिक की बात नहीं कर रहा हूँ. वैसे भी भारत और पाकिस्तान जैसे देशो में जो पैसा आम जनता की मदद के लिए आता है, उसमे से कितना आम लोगो के लिए कितना इस्तेमाल होता है ये मुझे और आपको समझने और समझाने की जरुरत नहीं है. तो साहब बात हो रही थी कि क्या ये पडोसी देश इस लायक है कि इसकी मदद करी जाए.
मदद भी उसकी की जाती है जिसको उस मदद की जरुरत हो क्योंकि ताली कभी एक हाथ से नहीं बजती. उदहारण के लिए हाल ही में संपन्न हुई भारत पाक वार्ता को ले. जिसने भी पिछले महीने हमारे नपुंसक विदेश मंत्री एस एम् कृष्णा और शाह महमूद क़ुरैशी की प्रेस कांफ्रेंस देखी हो वो ये साफ़ तौर पर कह सकता है कि शाह महमूद क़ुरैशी "चोरी और सीना जोरी " वाली कहावत को और हमारे विदेश मंत्री "खिसयानी बिल्ली खम्बा नोचे" को चरितार्थ करते दिख रहे थे.
समझ नहीं आता कि जो देश अमेरिका को उल्लू बना कर के उसके पैसे लगातार खा रहा है और डकार भी नहीं ले रहा उसको सहायता देने के लिए भारत क्यों इतनी मिन्नतें कर रहा है. क्या पाकिस्तान ने कभी पडोसी देश का धर्म निभाया है. आज पिछले कुछ सालो से जिस आतंकवाद से पूरी दुनिया त्रस्त है भारत ने तो अपने पडोसी देश की मेहरबानी से उस आतंक के दानव को कई दशको से सहा है. बंटवारे के चौबीस साल में ही तीन बार युद्ध कर के जब वो ये समझ गया कि इन रणबांकुरो को हराना नामुमकिन है तो उसने आतंकवाद, कारगिल, कसाब, दाउद, जाली नोट, हथियार, तस्करी जैसे छद्म रूप से भारत देश पर हमला बोल दिया.
हाल ही में जब ब्रितानी प्रधामंत्री डेविड केमरून ने बंगलौर में दो टूक शब्दों में कहाँ कि पाकिस्तान एक हाथ से मदद की भीख और दुसरे खून सने हाथ से आतंक का समर्थन नहीं कर सकता तो पाकिस्तान के सत्ता के गलियारों में बैठे कई लोगो के इधर उधर और जाने किधर किधर से धुना निकलने लगा. उस समय इन्ही पाकिस्तानी विदेश मंत्री शाह महमूद क़ुरैशी ने तत्काल कहाँ कि पाकिस्तान ने आतंक के खिलाफ लड़ाई में अपने कई सैनिक खोए है इसलिए पाकिस्तान पर आतंक के विरुद्ध कार्यवाही में संदेह नहीं किया जाना चाहिए. इस तर्क से तो शायद कल को कोई तालेबानी प्रवक्ता भी कह सकता है कि तालेबान ने भी लड़ाई में अपने बहुत से लोग खोये है इसलिए तालिबान को भी शांति का पुजारी ही माना जाना चाहिए.
समझ नहीं आता कि क्यों हम अपने पाँव पर कुल्हाड़ी मारने को क्यों इतने बेताब है, क्यों बेताब है उसकी मदद करने के लिए जिसने हमेशा ही भारत की पीठ में छुरा घोंपा है. अरे भाई क्या हमारे देश की सारी समस्याए हल हो गई है जो आप पडोसी को पचास लाख डालर की मदद कर रहे हो. समझ नहीं आता कि आप पैसा दे रहे हो या ले रहे हो.
मन्नू भाई अगर आपके खजाने में इतना पैसा है तो उसको देश से गरीबी, भुखमरी, अशिक्षा और बेरोजगार मिटाने में लगाइए , लेह में हुए नुकसान की भरपाई में लगाइए, भ्रष्टाचार के निर्मूलन में लगाइए, ढाई दशक से मदद की बाट देखते हुए बचे खुचे भोपाल गैस कांड के पीडितो को न्याय दिलवाने में लगाइए, देश में सड़ रहे अनाज को बचाने में लगाइए, सरकारी दफ्तरों में कार्य को चुस्त बनाने और पारदर्शिता लाने के लिए लगाइए, जर्जर न्यायपालिका को कार्यकुशल बनाने में लगाइए. इसके बाद जो बच जाए उससे देश का कर्ज चुकाइए. फिर भी कुछ बच जाए तो उससे देश का भविष्य सुधारने में लगाइए. मेहरबानी करके आस्तीन में सांप मत पालिए. उस विष के बीज मत बोइये जो कल विष बेल बन कर हमारा और आने वाली पीढियों का नुकसान करे.
आपने और हम सबने सुना है "यथा राजा तथा प्रजा". आज देश के नेता ही देश के राजा है और इन लिफाफों को देख कर ही मजमून का अंदाज़ा लग जाता है. यद्यपि ये बात बिलकुल सही है की सौ करोड़ की आबादी में सब एक सरीखे नहीं हो सकते लेकिन अधिकतर लोग क्या चाहते है उसका तो अंदाजा हो ही जाता है हमारे इन जनप्रतिनिधियों को देख कर. हमारे देश के ये जयचंद या फिर संसद में जानवरों के झुण्ड सा बर्ताव करती शिखंडियो की इस फौज ने देश के जनता को भी शिखंडी ही बना छोड़ा है.
मुद्दे पर आते है. आज इनकी बेवकूफी भरी एक और खबर पढ़ी और पढ़ कर खून खौल उठा. कल यानि गुरूवार को भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पाकिस्तानी प्रधान मंत्री युसुफ़ रज़ा गिलानी से फ़ोन पर बातकर पाकिस्तान में आई विनाशकारी बाढ़ में मदद की पेशकश दोहराई थी. उस के बाद पाकिस्तानी सरकार ने भारत की मदद स्वीकार करने का फ़ैसला किया. उल्लेखनीय है की करीब एक हफ़्ते पहले भारत सरकार ने पाकिस्तान के लिए 50 लाख डॉलर की रकम बतौर मदद देने की पेशकश की थी जिसके जवाब में पाकिस्तानी सरकार ने भारत का शुक्रिया तो अदा किया था लेकिन इस मदद को स्वीकार करने पर सोच विचार करने की बात कही थी. न्यूयॉर्क में पाकिस्तानी विदेश मंत्री शाह महमूद क़ुरैशी ने भारत सरकार की तारीफ़ की और कहा, “पाकिस्तान ने उसूली तौर पर भारत की मदद की पेशकश को क़बूल करने का फ़ैसला कर लिया है."
हम सब जानते है कि इन दिनों पाकिस्तान में प्रकृति का प्रकोप बरसात के रूप में कहर बन कर बरस रहा है. दिन प्रतिदिन हालत बद से बदतर हो रहे है और लाखो की संख्या में लोग प्रभावित हुए है. अमेरिका पोंगा पंडित बन कर इस बार भी अपने स्वयं की स्वार्थ पूर्ति के लिए पाकिस्तान को आने दो आने की लोलीपोप दे रहा है और दुसरे देशो से भी इसी तरह की भीख देने को कह रहा है.
वैसे भी कहते है कि "दान भी पात्र देख को कर ही दिया जाता है". ये बात जरुर विचारणीय है कि क्या पाकिस्तान वाकई मदद का हक़दार है. ज्ञातव्य रहे मैं यहाँ पर वहां के आम नागरिक की बात नहीं कर रहा हूँ. वैसे भी भारत और पाकिस्तान जैसे देशो में जो पैसा आम जनता की मदद के लिए आता है, उसमे से कितना आम लोगो के लिए कितना इस्तेमाल होता है ये मुझे और आपको समझने और समझाने की जरुरत नहीं है. तो साहब बात हो रही थी कि क्या ये पडोसी देश इस लायक है कि इसकी मदद करी जाए.
मदद भी उसकी की जाती है जिसको उस मदद की जरुरत हो क्योंकि ताली कभी एक हाथ से नहीं बजती. उदहारण के लिए हाल ही में संपन्न हुई भारत पाक वार्ता को ले. जिसने भी पिछले महीने हमारे नपुंसक विदेश मंत्री एस एम् कृष्णा और शाह महमूद क़ुरैशी की प्रेस कांफ्रेंस देखी हो वो ये साफ़ तौर पर कह सकता है कि शाह महमूद क़ुरैशी "चोरी और सीना जोरी " वाली कहावत को और हमारे विदेश मंत्री "खिसयानी बिल्ली खम्बा नोचे" को चरितार्थ करते दिख रहे थे.
समझ नहीं आता कि जो देश अमेरिका को उल्लू बना कर के उसके पैसे लगातार खा रहा है और डकार भी नहीं ले रहा उसको सहायता देने के लिए भारत क्यों इतनी मिन्नतें कर रहा है. क्या पाकिस्तान ने कभी पडोसी देश का धर्म निभाया है. आज पिछले कुछ सालो से जिस आतंकवाद से पूरी दुनिया त्रस्त है भारत ने तो अपने पडोसी देश की मेहरबानी से उस आतंक के दानव को कई दशको से सहा है. बंटवारे के चौबीस साल में ही तीन बार युद्ध कर के जब वो ये समझ गया कि इन रणबांकुरो को हराना नामुमकिन है तो उसने आतंकवाद, कारगिल, कसाब, दाउद, जाली नोट, हथियार, तस्करी जैसे छद्म रूप से भारत देश पर हमला बोल दिया.
हाल ही में जब ब्रितानी प्रधामंत्री डेविड केमरून ने बंगलौर में दो टूक शब्दों में कहाँ कि पाकिस्तान एक हाथ से मदद की भीख और दुसरे खून सने हाथ से आतंक का समर्थन नहीं कर सकता तो पाकिस्तान के सत्ता के गलियारों में बैठे कई लोगो के इधर उधर और जाने किधर किधर से धुना निकलने लगा. उस समय इन्ही पाकिस्तानी विदेश मंत्री शाह महमूद क़ुरैशी ने तत्काल कहाँ कि पाकिस्तान ने आतंक के खिलाफ लड़ाई में अपने कई सैनिक खोए है इसलिए पाकिस्तान पर आतंक के विरुद्ध कार्यवाही में संदेह नहीं किया जाना चाहिए. इस तर्क से तो शायद कल को कोई तालेबानी प्रवक्ता भी कह सकता है कि तालेबान ने भी लड़ाई में अपने बहुत से लोग खोये है इसलिए तालिबान को भी शांति का पुजारी ही माना जाना चाहिए.
समझ नहीं आता कि क्यों हम अपने पाँव पर कुल्हाड़ी मारने को क्यों इतने बेताब है, क्यों बेताब है उसकी मदद करने के लिए जिसने हमेशा ही भारत की पीठ में छुरा घोंपा है. अरे भाई क्या हमारे देश की सारी समस्याए हल हो गई है जो आप पडोसी को पचास लाख डालर की मदद कर रहे हो. समझ नहीं आता कि आप पैसा दे रहे हो या ले रहे हो.
मन्नू भाई अगर आपके खजाने में इतना पैसा है तो उसको देश से गरीबी, भुखमरी, अशिक्षा और बेरोजगार मिटाने में लगाइए , लेह में हुए नुकसान की भरपाई में लगाइए, भ्रष्टाचार के निर्मूलन में लगाइए, ढाई दशक से मदद की बाट देखते हुए बचे खुचे भोपाल गैस कांड के पीडितो को न्याय दिलवाने में लगाइए, देश में सड़ रहे अनाज को बचाने में लगाइए, सरकारी दफ्तरों में कार्य को चुस्त बनाने और पारदर्शिता लाने के लिए लगाइए, जर्जर न्यायपालिका को कार्यकुशल बनाने में लगाइए. इसके बाद जो बच जाए उससे देश का कर्ज चुकाइए. फिर भी कुछ बच जाए तो उससे देश का भविष्य सुधारने में लगाइए. मेहरबानी करके आस्तीन में सांप मत पालिए. उस विष के बीज मत बोइये जो कल विष बेल बन कर हमारा और आने वाली पीढियों का नुकसान करे.
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Friday, August 20, 2010
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राजनीति
कैसे बने हमारे सपनो का भारत
हिंदी ब्लॉग जगत पर वैसे तो कई दिग्गज और धुरंधर है जो अपनी लेखनी से अपने विचारों का नियमित रूप से प्रसार करते है। राजीनीति, धर्म, यात्रा, संस्मरण आदि सब विषयों पर अक्सर कुछ सार्थक गद्य और पद्य पढ़ने को मिल जाता है ।
लेकिन हाल ही में इन सब से हटकर सर्वप्रथम अजित जी का लेख पता नहीं हम अपने देश भारत से नफरत क्यों करते हैं? पढ़ा. उसके बाद उसी विषय को आगे बढ़ाते हुए खुशदीप जी ने अपने ब्लॉग देशनामा में भारत तो आखिर ठीक कौन करेगा ? लिखा. इन लेख को पढ़ कर लगा कि मूल समस्या से तो हम सब वाकिफ है लेकिन सोचने वाली बात ये है कि क्या इसका कोई समाधान है और यदि है तो क्या उसे अमलीजामा पहनाया जा सकता है ? बस इसी सोच पर मैंने अपने कुछ विचार व्यक्त किये है.
जैसा की हम सब जानते है देश में लोकतंत्र के चारो स्तंभ आज जर्जर हालत में है. हमारे ही द्वारा चुने गए लुटेरे (जिनको हम नेता या जनप्रतिनिधि कहते है) खुले आम भ्रष्टाचार, अय्याशी, लूटपाट इत्यादि का तांडव खेल रहे है. ऊपर से नीचे तक गंदगी फैली हुई है. हर कोई अपनी जेब भरने में लगा है. आजादी के बासठ साल में ही देश का सत्तर लाख करोड रुपया स्विस बैंक में जा चुका है. ये राशि वहाँ के बैंको में जमा अन्य सभी देशो की कुल जमा राशि से भी अधिक है. देश में अमीरी और गरीबी के बीच की खाई दिन प्रतिदिन बढती ही जा रही है. चूँकि आज देश में चोर, लुटेरे खुले आम सीना तान कर बिना सजा के घूम रहे है, इसलिए उनसे सीख ले कर अन्य लोग भी गलत रास्ते पर चलने में घबराते नहीं है.
ऐसे में आम आदमी के दिल में हमेशा ये सवाल कौंधता है कि क्या कुछ ऐसा किया जाए कि सबको उनका हक के हिसाब से पारितोषिक मिले और आम जनता अपना जीवन सकून बसर कर सके.
केवल शिक्षा के द्वारा इस बीमारी को ठीक करने की सोचना ठीक वैसा ही है जैसे की कैंसर के लिए एस्प्रिन लेना. मेरा ये मानना है कि शिक्षित होना और समझदार होने में फर्क है. शिक्षा से ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है लेकिन उस ज्ञान को व्यक्ति कैसे उपयोग करता है इससे ही उस व्यक्ति की समझदारी झलकती है. देश में आज Civic Sense की कमी है, जो अफ़सोस किसी स्कूल या कॉलेज में नहीं पढाया जाता बल्कि ये समाज से उपजता है. आज हर कोई इस आपाधापी में लगा है कि दूसरे को उल्लू बना कर कैसे अपना उल्लू सीधा किया जाये. मुझे नहीं लगता कि केवल पढ़ लिख कर या सबको केवल स्नातक, इंजिनियर, डॉक्टर बना देने से ये समस्या हल हो जायेगी. पिछले पचास साल में देश में इतने शिक्षित लोग बढे है लेकिन क्या भ्रष्टाचार पर कुछ लगाम नहीं लगी और न ही इसमें थोड़ी सी भी कमी आई ? आज पढ़ा लिखा व्यक्ति कमा कर खा सकता है लेकिन जीवन में सफल हो ये जरुरी नहीं है. मेरे विचार से देश को अगर ठीक रास्ते पर लाना है तो :
१. हमें व्यवसाय सम्बंधित शिक्षा पर जोर देना होगा ताकि पढ़ लिख कर युवा नौकरी का मुंह ताकने की बजाये आज का युवा खुद एक छोटा मोटा उद्यमी बन सके. हमारे देश में हर IIT, IIM, ISB, अभियांत्रिकी और मेडिकल कोलेज इत्यादि संस्थानों को अपने छात्रों को दो साल तक अनिवार्य रूप से गांव में जा कर के तकनीक और व्यापार स्थापित करने और अपनी सेवाए देने के बाद ही डिग्री प्रदान करनी चाहिए. आम लोगो को शिकायत रहती है कि कुशाग्र बुद्धि वाले ये छात्र देश में पढ़ लिख कर बाहर दूसरे देशो की अर्थव्यवस्थाओ में योगदान देते है, लेकिन अपने देश पर ध्यान नहीं देते. छात्रों को ये शिकायत होती है कि अपने ही देश में उन्हें उनकी काबिलियत का न तो वाजिब सम्मान नहीं मिलता है और न ही अपनी कुशलता को दिखाने के मौके. वे अगर देश में रुक भी जाए तो सरकारी लाल फीताशाही में फंस कर रह जाते है, और कुछ कर नहीं सकते. अफ़सोस दोनों ही अपनी जगह बिल्कुल सही है.
इसी तरह विज्ञानं, वाणिज्य और कला संकाय के छात्रों को भी दो साल तक सरकारी, गैर सरकारी संघठनो के साथ काम करने के बाद डिग्री मिलनी चाहिए. यहाँ भी प्रतिस्पर्धा बनाये रखने के लिए कुछ छात्रों को एक कार्य दिया जाए और ये देखा जाए कि किसने कितने गुणवत्ता के साथ कार्य को पूरा किया या कितनी सुगमता से मुश्किल को हल किया. छात्रों को ये अहसास कराया जाए कि वो देश कि प्रगति में योगदान दे रहे है और उन्हें इसके लिए गौरान्वित किया जाए.
२. नेताओ की जवाबदेही तय हो. अगर वो उस मापदंड पर या चुनाव से पहले किये हुए अपने किये हुए अपने वादों को पूरा नहीं कर पाते तो उस व्यक्ति या उसके परिवार में किसी को नेता के टिकट के लिए अयोग्य घोषित कर दिया जाए.
३. गलती से सीख लेते हुए जितना हो सके तकनीक का उपयोग कर सरकार को जनता को सेवा प्रदान करे . अफ़सोस आज भी तेलगी जैसे बड़े कांड के बाद हम कागज के स्टेम्प पेपर को प्रयोग में लाते है न कि इलेक्ट्रोनिक स्टाम्प पेपर. चूँकि हर गतिविधि इलेक्ट्रोनिक होगी तो इससे पारदर्शिता बढ़ेगी और भ्रष्टाचार में कमी आएगी. इस काम के लिए देश की बड़ी बड़ी कंपनिया जैसे इनफ़ोसिस, टाटा कंसल्टेंसी इत्यादि की सेवा देश में इलेक्ट्रोनिक सेवा स्थापित करने के लिए ली जाए.
४. सभी सरकारी संस्थानों में पूर्ण कालिक नियुक्ति की बजाये दो या तीन साल के लिए अनुबंधन पर नौकरी दी जाए जो कार्यकुशलता के हिसाब से नवीकृत की जाए. प्रत्येक व्यक्ति जो सरकारी विभाग जैसे पुलिस, बिजली, जल विभाग से सेवा लेता है उन्हें अपना कार्य पूरा होने के बाद एक फॉर्म दिया जाए जिस पर वो विभाग की सेवा से कितना संतुष्ट है ये बतला सके. उस प्रतिपुष्टि (फीडबैक) के द्वारा उस विभाग का बजट तय किया जाए और प्रत्येक अधिकारी की तनख्वाह, पदोन्नति, बोनस इत्यादि तय किये जाए.
५. न्यायलय हर मामले में विशेषकर संगीन भ्रष्टाचार के मामलो के निपटारे में एक निश्चित समय सीमा निर्धारित करे . गलत सबूत पेश करने पर और झूठी गवाही देने वालो को सजा और झूठी गवाही उन्हें दिलवाने वाले वकील को दुगनी सजा दी जाए. साथ ही पेशे के साथ बेईमानी करने के लिए उन्हें भविष्य में वकालत करने पर रोक लगा दी जाए. इलेक्ट्रोनिक तथ्य जैसे विडियो, फोन, ई-मेल इत्यादि को पुख्ता सबूत माना जाए.
वैसे करने को बहुत कुछ है लेकिन अन्तोगत्वा सवाल फिर ये ही आता है कि ये करे कौन. क्योंकि जिनको ये करने का जिम्मा दिया जाता है वो रक्षक आज खुद ही भक्षक बन बैठे है. आम आदमी बिना दांत और नाख़ून के ये कैसे सुनिश्चित करे कि इस तरह की योजनाओ का क्रियान्वन हो, शायद ये ही अब आज का यक्ष प्रश्न है.
लेकिन हाल ही में इन सब से हटकर सर्वप्रथम अजित जी का लेख पता नहीं हम अपने देश भारत से नफरत क्यों करते हैं? पढ़ा. उसके बाद उसी विषय को आगे बढ़ाते हुए खुशदीप जी ने अपने ब्लॉग देशनामा में भारत तो आखिर ठीक कौन करेगा ? लिखा. इन लेख को पढ़ कर लगा कि मूल समस्या से तो हम सब वाकिफ है लेकिन सोचने वाली बात ये है कि क्या इसका कोई समाधान है और यदि है तो क्या उसे अमलीजामा पहनाया जा सकता है ? बस इसी सोच पर मैंने अपने कुछ विचार व्यक्त किये है.
जैसा की हम सब जानते है देश में लोकतंत्र के चारो स्तंभ आज जर्जर हालत में है. हमारे ही द्वारा चुने गए लुटेरे (जिनको हम नेता या जनप्रतिनिधि कहते है) खुले आम भ्रष्टाचार, अय्याशी, लूटपाट इत्यादि का तांडव खेल रहे है. ऊपर से नीचे तक गंदगी फैली हुई है. हर कोई अपनी जेब भरने में लगा है. आजादी के बासठ साल में ही देश का सत्तर लाख करोड रुपया स्विस बैंक में जा चुका है. ये राशि वहाँ के बैंको में जमा अन्य सभी देशो की कुल जमा राशि से भी अधिक है. देश में अमीरी और गरीबी के बीच की खाई दिन प्रतिदिन बढती ही जा रही है. चूँकि आज देश में चोर, लुटेरे खुले आम सीना तान कर बिना सजा के घूम रहे है, इसलिए उनसे सीख ले कर अन्य लोग भी गलत रास्ते पर चलने में घबराते नहीं है.
ऐसे में आम आदमी के दिल में हमेशा ये सवाल कौंधता है कि क्या कुछ ऐसा किया जाए कि सबको उनका हक के हिसाब से पारितोषिक मिले और आम जनता अपना जीवन सकून बसर कर सके.
केवल शिक्षा के द्वारा इस बीमारी को ठीक करने की सोचना ठीक वैसा ही है जैसे की कैंसर के लिए एस्प्रिन लेना. मेरा ये मानना है कि शिक्षित होना और समझदार होने में फर्क है. शिक्षा से ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है लेकिन उस ज्ञान को व्यक्ति कैसे उपयोग करता है इससे ही उस व्यक्ति की समझदारी झलकती है. देश में आज Civic Sense की कमी है, जो अफ़सोस किसी स्कूल या कॉलेज में नहीं पढाया जाता बल्कि ये समाज से उपजता है. आज हर कोई इस आपाधापी में लगा है कि दूसरे को उल्लू बना कर कैसे अपना उल्लू सीधा किया जाये. मुझे नहीं लगता कि केवल पढ़ लिख कर या सबको केवल स्नातक, इंजिनियर, डॉक्टर बना देने से ये समस्या हल हो जायेगी. पिछले पचास साल में देश में इतने शिक्षित लोग बढे है लेकिन क्या भ्रष्टाचार पर कुछ लगाम नहीं लगी और न ही इसमें थोड़ी सी भी कमी आई ? आज पढ़ा लिखा व्यक्ति कमा कर खा सकता है लेकिन जीवन में सफल हो ये जरुरी नहीं है. मेरे विचार से देश को अगर ठीक रास्ते पर लाना है तो :
१. हमें व्यवसाय सम्बंधित शिक्षा पर जोर देना होगा ताकि पढ़ लिख कर युवा नौकरी का मुंह ताकने की बजाये आज का युवा खुद एक छोटा मोटा उद्यमी बन सके. हमारे देश में हर IIT, IIM, ISB, अभियांत्रिकी और मेडिकल कोलेज इत्यादि संस्थानों को अपने छात्रों को दो साल तक अनिवार्य रूप से गांव में जा कर के तकनीक और व्यापार स्थापित करने और अपनी सेवाए देने के बाद ही डिग्री प्रदान करनी चाहिए. आम लोगो को शिकायत रहती है कि कुशाग्र बुद्धि वाले ये छात्र देश में पढ़ लिख कर बाहर दूसरे देशो की अर्थव्यवस्थाओ में योगदान देते है, लेकिन अपने देश पर ध्यान नहीं देते. छात्रों को ये शिकायत होती है कि अपने ही देश में उन्हें उनकी काबिलियत का न तो वाजिब सम्मान नहीं मिलता है और न ही अपनी कुशलता को दिखाने के मौके. वे अगर देश में रुक भी जाए तो सरकारी लाल फीताशाही में फंस कर रह जाते है, और कुछ कर नहीं सकते. अफ़सोस दोनों ही अपनी जगह बिल्कुल सही है.
इसी तरह विज्ञानं, वाणिज्य और कला संकाय के छात्रों को भी दो साल तक सरकारी, गैर सरकारी संघठनो के साथ काम करने के बाद डिग्री मिलनी चाहिए. यहाँ भी प्रतिस्पर्धा बनाये रखने के लिए कुछ छात्रों को एक कार्य दिया जाए और ये देखा जाए कि किसने कितने गुणवत्ता के साथ कार्य को पूरा किया या कितनी सुगमता से मुश्किल को हल किया. छात्रों को ये अहसास कराया जाए कि वो देश कि प्रगति में योगदान दे रहे है और उन्हें इसके लिए गौरान्वित किया जाए.
२. नेताओ की जवाबदेही तय हो. अगर वो उस मापदंड पर या चुनाव से पहले किये हुए अपने किये हुए अपने वादों को पूरा नहीं कर पाते तो उस व्यक्ति या उसके परिवार में किसी को नेता के टिकट के लिए अयोग्य घोषित कर दिया जाए.
३. गलती से सीख लेते हुए जितना हो सके तकनीक का उपयोग कर सरकार को जनता को सेवा प्रदान करे . अफ़सोस आज भी तेलगी जैसे बड़े कांड के बाद हम कागज के स्टेम्प पेपर को प्रयोग में लाते है न कि इलेक्ट्रोनिक स्टाम्प पेपर. चूँकि हर गतिविधि इलेक्ट्रोनिक होगी तो इससे पारदर्शिता बढ़ेगी और भ्रष्टाचार में कमी आएगी. इस काम के लिए देश की बड़ी बड़ी कंपनिया जैसे इनफ़ोसिस, टाटा कंसल्टेंसी इत्यादि की सेवा देश में इलेक्ट्रोनिक सेवा स्थापित करने के लिए ली जाए.
४. सभी सरकारी संस्थानों में पूर्ण कालिक नियुक्ति की बजाये दो या तीन साल के लिए अनुबंधन पर नौकरी दी जाए जो कार्यकुशलता के हिसाब से नवीकृत की जाए. प्रत्येक व्यक्ति जो सरकारी विभाग जैसे पुलिस, बिजली, जल विभाग से सेवा लेता है उन्हें अपना कार्य पूरा होने के बाद एक फॉर्म दिया जाए जिस पर वो विभाग की सेवा से कितना संतुष्ट है ये बतला सके. उस प्रतिपुष्टि (फीडबैक) के द्वारा उस विभाग का बजट तय किया जाए और प्रत्येक अधिकारी की तनख्वाह, पदोन्नति, बोनस इत्यादि तय किये जाए.
५. न्यायलय हर मामले में विशेषकर संगीन भ्रष्टाचार के मामलो के निपटारे में एक निश्चित समय सीमा निर्धारित करे . गलत सबूत पेश करने पर और झूठी गवाही देने वालो को सजा और झूठी गवाही उन्हें दिलवाने वाले वकील को दुगनी सजा दी जाए. साथ ही पेशे के साथ बेईमानी करने के लिए उन्हें भविष्य में वकालत करने पर रोक लगा दी जाए. इलेक्ट्रोनिक तथ्य जैसे विडियो, फोन, ई-मेल इत्यादि को पुख्ता सबूत माना जाए.
वैसे करने को बहुत कुछ है लेकिन अन्तोगत्वा सवाल फिर ये ही आता है कि ये करे कौन. क्योंकि जिनको ये करने का जिम्मा दिया जाता है वो रक्षक आज खुद ही भक्षक बन बैठे है. आम आदमी बिना दांत और नाख़ून के ये कैसे सुनिश्चित करे कि इस तरह की योजनाओ का क्रियान्वन हो, शायद ये ही अब आज का यक्ष प्रश्न है.
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Bhavesh (भावेश )
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Friday, July 23, 2010
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राजनीति
चिंगलिश यानि चीनी इंग्लिश
पिछले पोस्ट में मैंने ये दिखाया था कि कैसे हम भारतीय खुद अपनी मातृभाषा की दुर्गति कर रहे है। आइये आज देखे कि चीन में जहाँ इस समय दुनिया में सबसे ज्यादा लोग अंग्रेजी लिख पढ़ना सीख रहे है वहाँ पर अंग्रेजी का क्या हाल है।
(सभी चित्र साभार : न्यू योर्क टाइम्स)
(सभी चित्र साभार : न्यू योर्क टाइम्स)
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Bhavesh (भावेश )
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Friday, July 23, 2010
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दुर्गति हिंदी की
कहने को तो हिंदी हमारे देश की या यूँ कहें उत्तर भारत की भाषा है आज तक हिंदी को भी राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं प्राप्त हुआ। हो भी कैसे, हिंदी भाषी क्षेत्रो में ही हिंदी दुर्गति की शिकार है। यकीन नहीं होता तो नीचे चित्रों को देखिये और फिर फैसला कीजिये....
(सभी चित्र : साभार बीबीसी)
(सभी चित्र : साभार बीबीसी)
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Bhavesh (भावेश )
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Thursday, May 06, 2010
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