हो सकता है आप में से कई लोगो को ये शीर्षक अजीब और असमान सा लगे पर इन दोनों में काफी समानता है. आज ये दोनों ही देश में बड़ी समस्या है. फर्क इतना ही है कि एक थोडी पुरानी है तो दूसरी नई. सबसे पहले तो स्पष्ट कर दूँ, जी नहीं मैं आरक्षित वर्ग को निर्यात करने की बात नहीं कर रहा हूँ वैसे अगर ऐसा हो जाए तो देश को और इस वर्ग दोनों को ही फायदा होगा. सौ फीसदी नुकसान में तो वो रहेगा जो इनका आयात करेगा. पर अपने देश के अलावा ऐसा कोई बड़े दिल वाला देश मिलना मुश्किल ही है जो इनको लेने को तैयार हो जाए. मुद्दे पर आते है. हमारी सरकार विकसित देशो की पिछले कुछ महीनो से शुरू की गई संरक्षणवादी नीतियों को बिल्कुल गलत मानती है, उसे निर्यात में गिरावट के लिए सीधे तौर पर जिम्मेवार मानती है, लेकिन सरकार ने पिछले साठ सालो से खुद आरक्षण का जो भस्मासुर पैदा कर रखा है उससे उसे वोटो की राजनीती के चलते कोई परहेज नहीं है. यानि, गुड खाए, गुलगुला से परहेज करे या फिर हम करे तो सही लेकिन उसी को अगर कोई दूसरा करे तो सरासर गलत. इसे कहते है दो मुंह वाली नीति.
भारत से होने वाले निर्यात में लगातार आठवें महीने गिरावट दर्ज की गई है. इस वर्ष मई माह में इसमें लगभग 29 फ़ीसदी की गिरावट दर्ज की गई. दुनिया के कई विकसित और विकासशील देशों में छाई आर्थिक मंदी के कारण भारतीय वस्तुओं और सेवाओं की माँग में कमी आई है. इस वर्ष मई में भारत से 534 अरब रूपए का निर्यात हुआ जबकि पिछले वर्षइसी महीने में 655 रूपए का निर्यात हुआ था. सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी में निर्यात का हिस्सा लगभग 15 प्रतिशत है.
इटली के ला-अक़िला शहर में धनी देशों के संगठन (जी-8) देशों की बैठक के दौरान भारत ने आर्थिक सुस्ती पर विकसित देशों के रवैये की आलोचना की है. भारतीय विदेश सचिव शिव शंकर मेनन ने स्पष्ट कहा, "विकसित देश अपने उद्योग- धंधों को संरक्षण दे रहे हैं. संरक्षणवाद ख़तरनाक साबित हो सकता है." ग़ौरतलब है कि आर्थिक सुस्ती के दौर में भारत से निर्यात में भारी गिरावट आई है और इसके लिए कुछ हद तक विकसित देशों की सरंक्षणवादी नीति को भी ज़िम्मेदार ठहराया जा रहा है.
अब सोचिये की विकसित देशो को कुछ महीने पहले शुरू किये गए सरंक्षणवादी नीतियों से हमारे देश को जो प्रत्यक्ष नुकसान हुआ है उसे देख कर सरकार के हाथो के तोते उड़ गए पर पिछले छ दशक से जातिगत वोटो के राजनीति की खातिर काबिल और लायक लोगो की बलि चढा कर आरक्षण के द्वारा ये जो नपुंसको की कामचोर सरकारी फौज खड़ी की गई है और उससे जो देश को नुकसान हुआ और हो रहा है उसका हिसाब कौन देगा.
देश का संविधान सभी देशवासियों को समानता से जीने का अधिकार देता है लेकिन कहाँ है वो अधिकार जब लोकतंत्र का मंदिर कहने जाने वाला संसद योग्यता, उत्कृष्टता और गुणवत्ता की जगह अपनी बुनियादो को जात, पात, धर्म, लिंग, मजहब के आरक्षण को शामिल कर ले.
देश की गन्दी राजनीती के खेल में, देश का बंटाधार करने के लिए आरक्षण के इस भस्मासुर को न जाने कितने काबिल लोगो की आहुतियाँ भेंट चढ़ चुकी है. हर साल कितने ही अनगिनत बच्चे पढाई में ज्यादा अच्छे होते हुए भी केवल इसलिए आगे नहीं बढ़ पाते है क्योंकि वो अनुसूचित जाती, जनजाति या पिछडी जाती में पैदा नहीं हुए थे, जिसमे उनकी कोई गल्ती नहीं है, और उनकी जगह किसी कम काबिल व्यक्ति को, जो की बहुत मुमकिन है की एक संपन्न आरक्षित वर्ग का है, उसे आगे बढा दिया जाता है. इन तुगलकी नियमों के जरिये जिन लोगो को पढना लिखना नहीं आता वो शिक्षक बन कर देश के भविष्य की तस्वीर बिगाड़ रहे है, जिनको शायद सुई पकड़नी भी नहीं आती वो डा बन कर आरक्षण की बीमारी को फैला रहे है, जिनको लकीर खींचनी नहीं आती वो इंजिनियर बन कर देश का नक्षा बिगाड़ रहे है और जिनको कुछ भी करना नहीं आता वो सरकारी ओहदों पर और नेता बन कर देश की नैया डूबाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे.
शायद देश के कुछ ऐसे ही हालात की कल्पना श्री रवींद्रनाथ टागोर और कांग्रेस ने १९११ में कर ली थी जब गुरुदेव ने इसे किंग जोर्ज पंचम के आगमन करने की स्तुति के रूप में लिखा था और फिर कांग्रेस ने इसे राष्ट्रगान का दर्जा दिया. आज भी हम हर रोज सुबह स्कूलों में बच्चो से गवाते है "भारत भाग्य विधाता". क्या करे जब गंवार जनता होगी और अनपढ़ नेता तो देश का भाग्य विधाता ही हो सकता है. जय हो ....
आरक्षण और निर्यात
Posted by
Bhavesh (भावेश )
at
Friday, July 10, 2009
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राजनीति
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2 comments:
पूर्ण सहमत हूँ......एकदम सच कहा आपने....
सार्थक सटीक आलेख हेतु आभार.
U r right
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