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हम वोट किसे दे ?

कल एक मंच पर प्रश्न पढ़ा था की आगामी चुनाव में किसे वोट दे. वैसे तो ये एक सामान्य सा दिखने वाला प्रश्न है पर अगर आप थोड़ा सोचेंगे तो पाएंगे की ये प्रश्न इतना आसान न होकर बहुत बड़ा प्रश्न है. ये घर परिवार, मोहल्ला, गाँव, शहर, जिला, राज्य, समाज से ऊपर देश के भविष्य निर्धारण का प्रश्न है. देश की दलदल वाली दलगत राजनीति में अब सब तरफ़ कीचड़ ही कीचड़ नज़र आता है. वोट मांगने वाले पार्टी दलदल में फंसे है और वोट देने वाले जाती के भंवर में. आगे बढ़ने से पहले आज देश की राजनीति पर एक कवि की कुछ सटीक पंक्तिया याद आ रही है.

कोई साधू संत नही है राजनीति की ड्योढी पर |
अपराधी तक आ बैठे है माँ संसद की सीढ़ी पर ||
गुंडे तस्कर, चोर, माफिया, सीना, ताने खड़े हुए |
जिनको जेलों में होना था वो संसद में खड़े हुए ||
डाकू नेता साथ मिले है राजनीति के जंगल में |
कोई फर्क नही लगता है अब संसद और चम्बल में ||
कोई फर्क नही पड़ता है हम किसको जितवाते है |
संसद तक जाते जाते ये सब डाकू बन जाते है ||

कहाँ जाता है की प्रजातंत्र के चार स्तंभ होते है :
  1. विधानसभा
  2. न्यायपालिका
  3. नौकरशाही
  4. प्रेस
आइये कुछ समाधान खोजने से पहले ये जांच ले की आज हमारे देश में ये चार बुनियादे किस स्तिथि में है. वो ठीक ठाक कहलाने योग्य है और समय के साथ साथ आज मजबूत स्तम्भ बन कर उभरे है या फिर उन स्तंभों को समय की दीमक ने चाट कर खोखला और रीढ़विहीन बना दिया है.

  1. विधानसभा
राजनीति शब्द आज देश में एक गाली के समान है. ये देश का दुर्भाग्य है की जनता को आज चोर, डाकू, लुटेरे, अपराधी, माफिया में से किसी एक को चुनना होता है. करीब दो दशक पहले बिहार और उत्तर प्रदेश की राजनीति से जुड़े कुछ लोगों को लगा कि चुनाव जिताने-हराने में बाहुबलियों की महत भूमिका हो सकती है और इसलिए इनका सहयोग लिया जाए. बस यूँ समझ लीजिये की, यहाँ से राजनीति के अपराधीकरण की शुरुआत हो गई जो बाद में दूसरे राज्यों में भी शुरू हो गया. कुछ ही दिनों में बाहुबलियों को लगा कि अगर हम इनको बना सकते हैं तो ख़ुद क्यों नहीं बन सकते हैं. यहाँ से इस देश की बदकिस्मती की एक और दास्तां शुरू हो गई जिसका रोना हम आज तक रो रहे हैं. गुंडे राजनीति में आए और बड़े पदों पर पहुँचे और जो उनसे अपेक्षित था, आज वही देश की पूरी राजनीति में हो रहा है.

सत्ता अधम गुंडों मवालियों के हाथ में आ गई और वो केवल अपने स्वार्थ का ध्यान रख कर सरकारी पैसे का दुरुयोग करने की मंशा से देश की निति निर्धारण करने के बहाने देश को अधोगति की और बढ़ाने लग गए.प्रजातंत्र के मन्दिर कहे जाने वाले संसद में जुटे, चप्पल, नोट चलने लगे. आतंकवादी हमले होने लगे नेताओ की सुरक्षा का बजट बड़ा और इन सब के बीच आम आदमी पिसता चला गया.

जनता को अंत में साँप, नेवले और भेडियों में से किसी एक को चुनना वाकई चुनौतीपूर्ण हो जाता है. इसलिए कहते भी है "In India you do not caste your vote, but you vote your caste"
  1. न्यायपालिका
आज देश की न्यायपालिका का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है की दिल्ली हाईकोर्ट की वार्षिक रिपोर्ट 2007- 08 में कहा गया है कि सारे लंबित मामलों को सुलझाने के लिए अदालत को साढ़े चार सौ से अधिक साल का समय चाहिए. साढ़े चार सदियों में भी काम तभी निपट सकता है जब अदालत के पास नए मामले आने बंद हो जाएँ. जब तक क़ानूनों का सरलीकरण नहीं होता और क़ानूनी पेचों के कारण एक ही मामला भारत के अलग-अलग कोर्ट में चलता रहेगा, असक्षम जज, जिन्हें विधि प्रक्रिया की जरुरी समझ नहीं है, जज बने रहेंगे, जजों की मामले निपटाने में अरुचि रहेगी और अदालत की रग रग में कैंसर के रोग की तरह फैला हुआ भ्रष्टाचार रहेगा तब तक कुछ होना जाना नही है. एक ही केस में अलग अलग जज अलग अलग कोर्ट में अलग अलग फ़ैसला सुनाते है. जब अदालत को ख़ुद अपने फैसलों पर भरोसा नही है तो वो जनता से कैसे उम्मीद करे की जनता उसके फैसले का सम्मान करे.

ध्यान दे भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने सीबीआई से २००४ में पूछा कि वह सुझाव दे कि राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के सांसद पप्पू यादव को बेऊर जेल से हटाकर कहाँ रखा जाए जिससे उनकी 'असंवैधानिक गतिविधियों' पर रोक लगाई जा सके. सर्वोच्च न्यायालय ने पटना हाईकोर्ट में चल रहे मामले को भी सर्वोच्च न्यायालय में स्थानांतरित करने के आदेश भी दिए थे. पटना हाई कोर्ट ने २००४ में पप्पू यादव को जमानत दे दी. १८ जनवरी २००५ को सुप्रीम कोर्ट ये ने अपने फ़ैसले में कहा कि पटना हाई कोर्ट का पप्पू यादव को ज़मानत देने का फ़ैसला ग़लत था और उसने पप्पू यादव को ज़मानत देने के पटना हाई कोर्ट के फ़ैसले को रद्द कर दिया. फ़रवरी २००८ में पटना की एक विशेष अदालत ने मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) के पूर्व विधायक अजीत सरकार की हत्या के मामले में पप्पू यादव और दो अन्य को उम्र क़ैद की सज़ा सुनाई. फ़रवरी २००९ में पटना उच्च न्यायालय ने बुधवार को आजीवन कारावास की सजा भुगत रहे सांसद पप्पू यादव को ज़मानत दे दी.

  1. नौकरशाही
नौकरशाही तो अंग्रेजो के ज़माने से ही लाल फीताशाही में उलझी हुई थी. नौकरशाहों तो जब घृणित और नीच नस्ल के नेता आका के रूप में मिल गए तो फिर उन्हें वैधानिक रूप से भ्रष्टाचार, नीचता, बेईमानी और हरामखोरी करने की पुरी छुट मिल गई. आज ये दफ्तरशाही जोंक बन कर आम आदमी का खून चूस रही है. इनको तनख्वाह जनता के पैसे से मिलती है, रिश्वत भी जनता से लेते है लेकिन इनकी निष्ठां, जिम्मेदारी, वफादारी आदि सब नेताओ के प्रति होती है और इनके मुख्यत हर काम आम आदमी को तंग या परेशान करने के लिए ही होते है.

आज़ादी के 60 साल बाद आज हमारी नौकरशाही अपनी प्रशंसा में अपनी तुलना पड़ोसी देशों करते है और खुश हो लेते है. उनके अनुसार पाकिस्तान और बांग्लादेश की तुलना में भारत की तरक्की कहीं ज़्यादा है और इसमें नौकरशाही के योगदान को नहीं भुलाया जा सकता. शायद ख़ुद को जलालत से बचाने के लिए इन अफसरशाहों ने अपने न्यूनतम मापदंड या बेंचमार्क निकृष्टतम देशो के पैमाने को रखा और ख़ुद ही परीक्षार्थी बने, ख़ुद ने ही पर्चा बनाया, ख़ुद ने ही पर्चा दिया और ख़ुद ही जांच कर नतीजा निकाल दिया. स्पष्ट है की प्रशासनिक अधिकारियों का मानस आज भी नहीं बदला है, वे आज भी इस बात को स्वीकार नहीं कर पाए हैं कि पिछले 60 बरसों से कायम नई व्यवस्था में उनकी भूमिका जनता के सेवक की है.

सिंगापुर के पूर्व प्रधानमंत्री ली क्वान यू ने भारत के नौकरशाहों को दी जाने वाली गाड़ी, नौकर आदि की सुविधाओ के बारे में कहाँ था की अगर सिंगापुर इस तरह के राजसी वैभव लुटाने लग जाता तो उनके देश का निर्माण कभी हो ही नही सकता है. ली क्वान यू के अनुसार शायद भारत अभी एकमात्र ऐसा देश है जहाँ हर छोटे मोटे नेताओ और अफसरों को सबसे ज्यादा सरकारी सुविधाएँ मिलती है.

राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री रहते हुए कहा था कि अगर 100 रुपया केंद्र से चलता है तो 15 रुपए ही गाँव तक पहुँचता है और इसके लिए हमारे देश में व्याप्त भ्रष्टाचार ज़िम्मेदार है. पर इस भ्रष्टाचार के लिए केवल प्रशासनिक अधिकारी ही ज़िम्मेदार नहीं हैं. यह भ्रष्टाचार राजनीति और नौकरशाही दोनों में ही देखने को मिलता है. बहुत से नेताओं और नौकरशाहों की सांठ-गांठ के चलते जनता के पैसे वहाँ तक नहीं पहुँचे जहाँ के लिए उन्हें भेजा गया था. कागजो पर पुल, सड़क, कुएं इत्यादि बन जाते है पैसा खा लिया जाता है और जनता को मिलता है झूठी तरक्की का आश्वासन और कभी न पुरे होने वाले आम बुनियादी सुविधाओ के सपने जिन्हें आजादी के छ दशक बाद भी बड़े लुभावने ढंग की पैकिंग में पेश किया जाता है.

धीरे धीरी राजनीति, आपराधी और नौकरशाह का एक ऐसा कुख्यात बंधन बन गया है जो अपने छोटे छोटे स्वार्थो की पूर्ति के लिए देश को पुरी तरह बर्बाद करने पर आमादा है.

  1. प्रेस
लोकतांत्रिक देशों में प्रेस को चौथा खंभा माना जाता है, कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका को जनता से जोड़ने वाला खंभा.

पत्रकारों को कई सुविधाएँ मिलती हैं जैसे कई जगहों पर आने-जाने की आज़ादी, कार्यक्रमों में बेहतर कुर्सी, टेलीफ़ोन ख़राब होने पर जल्दी ठीक करवाने की व्यवस्था, रेल के आक्षरण के लिए अलग खिड़की वग़ैरह...ताकि वे अपनी ज़िम्मेदारियों का निर्वाह ठीक से कर सकें. ठीक उसी तरह जैसे सांसदों को टेलीफ़ोन, आवास, मुफ़्त यात्रा आदि की सुविधा दी जाती है. सांसद अपना काम ठीक से नहीं करते तो मीडिया उन पर टिप्पणी करने के लिए आज़ाद है. लेकिन जब मीडिया अपना काम ठीक से न करे तो?

दरअसल, जिन लोगों की ज़िम्मेदारी दूसरों के कामकाज की निगरानी, टीका-टिप्पणी और उस पर फ़ैसला सुनाने की होती है उनकी जवाबदेही कहीं और ज़्यादा हो जाती है. लेकिन फिर पत्रकार भी समाज का ही हिस्सा हैं, समाज में भ्रष्टाचार, बेईमानी और सत्ता के दुरुपयोग की जितनी बीमारियाँ हैं उनसे पत्रकारों के बचे रहने की उम्मीद करना नासमझी है.

आज देश के समाचार चैनल ज्यादातर मनोरंजन, खलबली मचाने के लिए जाने जाते है. आज ख़बरों के नाम पर नाग-नागिन, भूत-प्रेत, काल-कपाल चलते है शायद इसलिए की जनता इन्हे उतने ही चाव से देखती है जितने चाव से मीडिया इन्हे परोसती है. दर्शक देख रहे है ग़लत ख़बरें, नियमों का उल्लंघन, संवेदनाओं की हेठी और मनमाने मानदंड. कभी कभी, बीच-बीच में स्टिंग ऑपरेशनों से घबराई विधायिका मीडिया नियमन लागू करने की बात करती है, प्रेस को यह अपनी आज़ादी पर ख़तरा लगता है, पत्रकार कहते हैं कि हम ख़ुद अपना नियमन कर लेंगे.

दरअसल जब सब जगह जंगल राज है तो पत्रकार क्यों किसी उसूलो के बंधन में बंधे. उन्हें भी तो अपना घर चलाने के लिए पैसे की जरुरत होती है.

इन बातो से ये तो तय है की छ दशक में भी देश का दिशा निर्धारण सही नही हो पाया है. आजादी के चार दशक के कुछ बाद १९९१ में तो सोना गिरवी रख कर सरकार को पैसा लाना पड़ा था ताकि वो कर्जे के ब्याज की किश्ते चुका सके. आज पिछले दो दशक में हालत कुछ बेहतर हुए है लेकिन पुरे देश को इसका लाभ नही मिला है. आर्थिक प्रगति से कुछ प्रान्त, विशेष जातीयां या परिवार ही अधिक संपन्न हुए है. तो अब हम चुनाव से पहले कुछ सोचे, विचारे और तय करे की कौन इस देश की बागडौर सँभालने के लायक है.

देश में आज एक विशुद्ध चिंतन की आवश्यकता है, जिससे हम सत्ता के शीर्ष में बैठे भ्रष्ट, बेईमान और अपराधी किस्म के लोगों को सत्ता से बाहर कर देश में एक नई आजादी ला सकें। आजादी के बाद देश में कई सरकारें बदल गईं, लेकिन आज भी चरित्र, नियम और नीतियाँ नहीं बदली हैं, जिनके कारण आज भी सत्ता के शीर्ष में अधिकांश भ्रष्ट, बेईमान और अपराधी किस्म के लोग विराजमान हैं। शक्ति एवं संपत्ति के केंद्र सत्ता के शीर्ष पर बैठे नेताओं का चरित्र ठीक नहीं होने के कारण ही देश में भ्रष्टाचार पनप रहा है। दुःख इस बात का है कि इस भ्रष्टाचार को पूरे देश ने आज एक शिष्टाचार के रूप में स्वीकार कर लिया है। यह कड़वा सच है कि देश में 99 प्रतिशत से अधिक लोग ईमानदारी के साथ जीवन व्यतीत करना चाहते हैं, लेकिन एक प्रतिशत से कम भ्रष्ट और बेईमान लोग एवं भ्रष्ट व्यवस्था ने सौ करोड़ से अधिक जनता और देश का जीवन नरक बना दिया है।

सबसे पहले जिन बातो पर विचार करे वो ये की जो व्यक्ति चुनाव में खड़ा हुआ है उसका कोई अपराधिक रिकॉर्ड या अपराधिक छवि तो नही है. मेरे विचार से चुनाव में वोट किसी पार्टी को देना बेहतर रहता है क्योंकि निर्दलीय दल के नेता की जरुरत केवल अस्पष्ट बहुमत के वक्त आती है. उस समय ये महोदय अपना उल्लू सीधा करने के लिए उसी को समर्थन दे देते है जो इन्हे ज्यादा पैसे में खरीद सके. तो निर्दलीय अपना ख़ुद का फायदा करने से ज्यादा कुछ नही कर सकता.

आइये चुनाव में खड़े उम्मीदवारों से कुछ प्रश्न एक खुले पत्र के द्वारा पूछे और फिर तय करे की क्या ये सचमुच देश का भाग्य विधाता कहलाने लायक है या नही.

  1. सबसे पहले आप इस इलाके की तरक्की के बारे में क्या सोचते है. आप क्या नया करेंगे की लोगो को लगे की सरकारी खजाने के पैसे का सही इस्तेमाल हो रहा है.
  2. अब आप अपने पाँच साल का प्लान बतलाये और ये बताने का कष्ट करे की आप अगले पाँच सालो में कितने गावों को सम्पूर्ण साक्षर बनाएंगे, कितनी किलोमीटर सड़क का निर्माण करवाएँगे, कितने गावों में बिजली पहुचाएंगे, कितने गावों में स्वच्छ पानी पहुचाएंगे और इनमे कुल कितना खर्चा आएगा ?
  3. आप ये कैसे सुनिश्चित करेंगे की गावों में जहाँ बिजली नही है वहां बिजली पहुंचे और शहरो में जहाँ बिजली पहुँची हुई है वहां पैसे देने पर लोगो को निर्विघ्न बिजली उपलब्ध हो ?
  4. प्रशासन को पारदर्शी बनाने के लिए आप क्या कदम उठाएंगे ?
  5. आप भ्रष्टाचार को कैसे कम करने का प्रयास करेंगे ?
  6. हाल ही में अंतरष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) की रिपोर्ट के अनुसार २००९ में एशिया में करीब ढाई करोड़ नौकरिया ख़त्म हो जायेंगी. नए युवा जो नौकरी के बाजार में आयेंगे और जो लोग नौकरिया खोएंगे उनको सबको काम देने के लिए करीब छ करोड़ नए रोजगार उत्पन्न करने पड़ेंगे. इन छ करोड़ में करीब तीन करोड़ भारत में, दो करोड़ चीन में, छतीस लाख इंडोनेशिया में नए रोजगार पैदा करने पड़ेंगे. भारत में तीन करोड़ नए रोजगार पैदा करने के लिए आप या आपकी पार्टी क्या कर रही है.

अब उत्तर सुनने के बाद, आपको ये तय करना है की, अगर सचमुच कुछ परिवर्तन की उम्मींद है तब तो ठीक है वरना तो कुल मिला कर एक ही बात साफ़ है "भारत भाग्य विधाता"

स्वतंत्र भारत की राजनीति के साठ साल

हिंदुस्तान की राजनीति जब आज़ाद भारत में क़दम रखती है तब से लेकर अब तक के सफ़र में बहुत बदलाव हुए हैं. आज़ादी के बाद नेहरू के नेतृत्व में देश आगे बढ़ना शुरू करता है और चीन से युद्ध तक आता है. इस दौर में सबसे अच्छी बात यह थी कि अधिकतर लोग ऐसे थे जो देश की आज़ादी के लिए लड़े थे.

अलग-अलग विचारधाराओं के लोग थे. लोहिया, जयप्रकाश नारायण जैसे लोग अलग दिशा में चल निकले थे. कांग्रेस में भी वैचारिक भिन्नता थी, महावीर त्यागी और नेहरू के विचार अलग थे पर सार्वजनिक रूप से या व्यक्ति विशेष पर आरोप-प्रत्यारोप की परंपरा नहीं थी. विरोधों, मतभेदों और वैचारिक भिन्नता के बावजूद सभी एक बात पर सहमत थे कि इस देश को आगे बढ़ाना है.

इसी बीच केरल में कम्युनिस्ट पार्टी ने सरकार बना ली. यानी आज़ादी के 10 साल के अंदर ही केंद्र और अन्य राज्यों में कांग्रेस की सरकार होते हुए भी आम लोगों ने लोकतंत्र की ताकत का एक उदाहरण पेश कर दिया. इससे लगा कि हमारे देश का लोकतांत्रिक स्वरूप मज़बूत होता जा रहा है.

उस समय भी राजनीतिक हमले होते थे पर नीतियों को लेकर, विचारधाराओं को लेकर. कृष्ण मेनन जी के ख़िलाफ़ नीतियों के विरोध में हुए आक्षेपों से सार्वजनिक रूप से राजनीतिक हमलों की शुरुआत हुई पर निजी आक्षेप अभी भी नहीं थे.

फिर लालबहादुर शास्त्री की मौत के बाद इंदिरा गांधी को लेकर कांग्रेस दो फाड़ हुई और वहीं से निजी आक्षेपों का दौर भारतीय राजनीति में शुरू हुआ पर यहाँ भी एक मर्यादा बाक़ी थी.

इंदिरा गांधी ने भारतीय राजनीति को फिर से दो हिस्सों में बाँट दिया और अब लड़ाई अमीरों और ग़रीबों के बीच की बन गई. आगे चलकर उनके मतभेद कामराज जी से भी बढ़े और उन्होंने अपने को अकेला पाते हुए संजय गांधी को राजनीति में उतारा. इसी दौरान देश में 25 जून, 1975 को आपातकाल लगा. भारतीय राजनीति का यह सबसे बुरा दौर था

हालांकि आपातकाल में शुरुआत के कुछ महीने बहुत अच्छे काम हुए. क़ानून व्यवस्था की चरमराई हालत सुधरी पर यह तबतक था जबतक संजय गांधी को बागडोर नहीं सौंप दी गई. संजय गांधी को लाना और उनका निरंकुशता के साथ काम करना और इस तरह संविधान की मर्यादा और संवैधानिक व्यवस्था को पीछे कर देना ही भारतीय राजनीति में एक ऐसी परंपरा को पैदा कर गया जो हम आज तक झेल रहे हैं.

इसके बाद सत्ता बदलीं पर एक ग़लत परंपरा की शुरुआत देश की राजनीति में हो चुकी थी जो बाद में कई लोगों का चरित्र बनी.

वर्ष 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या हुई जिसके बाद सुनियोजित रूप से सिखों के ख़िलाफ़ दंगे हुए. दंगों में सिखों को बचाने की कोशिश करने वाले कांग्रेसियों की नज़र में गद्दार थे. यह राजनीति में वफ़ादारी की एक नई परिभाषा थी.

इसके बाद राजीव आए, वो संजय से अलग थे. शांत थे और शरीफ़ थे. इसके बाद 1989 में राजनीति ने फिर पलटी खाई और अब पहली बार ऐसा हुआ जब किसी मंत्री ने प्रधानमंत्री पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाकर अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया. बोफ़ोर्स तोप सौदे को लेकर राजीव गांधी पर निजी रूप से आरोप लगने शुरू हुए और भारतीय राजनीति में भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ लड़ाई और खुलकर निजी स्तर पर आरोप लगाने की शुरुआत यहीं से हुई.

इसी दौरान बिहार और उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक बड़ा बदलाव हुआ. राजनीति से जुड़े कुछ लोगों को लगा कि चुनाव जिताने-हराने में बाहुबलियों की महत भूमिका हो सकती है और इसलिए इनका सहयोग लिया जाए. यहाँ से राजनीति के अपराधीकरण की शुरुआत हो गई जो बाद में दूसरे राज्यों में भी शुरू हो गया.

कुछ ही दिनों में बाहुबलियों को लगा कि अगर हम इनको बना सकते हैं तो ख़ुद क्यों नहीं बन सकते हैं. यहाँ से इस देश की बदकिस्मती की एक और दास्तां शुरू होती है जिसका रोना हम आज तक रो रहे हैं.

गुंडे राजनीति में आए और बड़े पदों पर पहुँचे और जो उनसे अपेक्षित था, आज वही देश की पूरी राजनीति में हो रहा है. आज कोई मूल्य नहीं हैं. कुछ गिनती के लोग अच्छे भी हैं पर हद यह हो गई है कि आज जब कोई गांधी टोपी पहनकर निकलता है तो बच्चे कहते हैं कि देखो बेईमान नेता जा रहा है.

और विडंबना यह है कि यह केवल राजनीति का हाल नहीं है, जब आम आदमी ने देखा कि गुंडे सत्ता हासिल कर रहे हैं तो उसकी मानसिकता भी ताक़त हासिल करने की हो गई और आज पूरा समाज उसी तरह का व्यवहार करता नज़र आ रहा है.

समाज का हर वर्ग भ्रष्ट हो चुका है और राजनीति को देश के इस चरित्र का श्रेय जाता है. जो साफ़ छवि के हैं उन्हें ज़बरदस्ती फंसाया जा रहा है या भ्रष्ट बनाया जा रहा है. सचमुच देश की ये दुर्दशा देख कर रोना आता है.

एक रोचक लघु कथा

एक दिन एक कुत्ता जंगल में रास्ता भूल गया. तभी उसने देखा की एक शेर उसकी तरफ़ आ रहा है. कुत्ते की साँस सूख गई. उसने सोच "आज तो मेरा काम तमाम है". फिर उसने सामने कुछ सूखी हुई हड्डियाँ पड़ी देखी. वो आते हुए शेर की तरफ़ पीठ कर के बैठ गया और एक सूखी हड्डी को चूसने लगा और जोर जोर से बोलने लगा "वाह शेर को खाने का मजा ही कुछ और है. एक और मिल जाए तो पुरी दावत हो जायेगी" और इतना कह कर उसने जोर से डकार मारा. इस बार शेर सकते में आ गया. शेर ने सोचा "ये कुत्ता तो शेर का शिकार करता है, जान बचा कर भागो" और शेर वहां से चंपत हो गया.

पेड़ पर बैठा एक बन्दर ये सब तमाशा देख रहा था. उसने सोचा ये मौका अच्छा है शेर को सारी कहानी बता देता हूँ, शेर से दोस्ती भी हो जायेगी और उससे जिन्दगी भर के लिए जान का खतरा भी दूर हो जाएगा. वो फ़टाफ़ट शेर के पीछे भगा. कुत्ते ने बन्दर को जाते हुए देखा और समझ गया की कुछ तो लोचा है. उधर बन्दर ने शेर को सब बता दिया की कैसे कुत्ते ने उसे बेवकूफ बनाया है. शेर ज़ोर से दहाडा, "चल मेरे साथ अभी उसकी लीला ख़त्म करता हूँ" और बन्दर को अपनी पीठ पर बैठा कर शेर कुत्ते की तरफ़ लपका.

कुत्ते ने शेर को आते देखा तो एक बार फिर उसकी तरफ़ पीठ करके बैठ गया और ज़ोर ज़ोर से बोलने लगा, "इस बन्दर को भेज के एक घंटा हो गया साला एक शेर फाँस कर नही ला सकता!"

सीख : मुसीबत में घबराओ नही बल्कि चतुराई से काम लो

फुल्ली फालतू शायरी

अर्ज किया है
तुमको देखा तो ये ख्याल आया,
तुमको देखा तो ये ख्याल आया,
पागलो के स्टॉक में नया माल आया..

इधर खुदा है, उधर खुदा है,
जिधर देखो उधर खुदा है,
इधर उधर बस खुदा ही खुदा है,
जिधर नही खुदा है उधर कल खुदेगा

तुमसा कोई दूसरा जमीं पर होगा तो रब से शिकायत होगी,
एक तो झेला नही जाता, दूसरा आ गया क्या हालत होगी.

कोई पत्थर से न मारे मेरे दीवाने को,
न्यूक्लिअर पॉवर का ज़माना है, बम से उड़ा दो साले को.

दुरखत के पैमाने पर चिलमन-ऐ-हुस्न का फुरकत से शर्माना,
दुरखत के पैमाने पर चिलमन-ऐ-हुस्न का फुरकत से शर्माना,
ये लाइन अगर समझ में आ जाए तो मुझे जरुर बताना


तेरे दर पर सनम हज़ार बार आयेंगे, तेरे दर पर सनम हज़ार बार आयेंगे,
घंटी बजायेंगे और भाग जायेंगे

मेरे मरने के बाद मेरे दोस्तों, यूँ आंसू न बहाना,
अगर मेरी याद आए तो, सीधे ऊपर चले आना

जब जब घिरे बादल तेरी याद आई, झूम के बरसा सावन तेरी याद आई,
भीगा मैं फिर भी तेरी याद आई, अब नहीं रहा जाता,
छतरी लौटा दे मेरे भाई

एक आप हो की शर्माते बहुत हो, एक आप हो इतराते बहुत हो,
दिल तो करता है आप को डिनर पर ले जायें, लेकिन कम्बक्त एक आप हो की खाते भी बहुत हो.

जैसे लोहे को लोहा काटता है, हीरे को हिरा काटता है,
कांच को कांच काटता है, वैसे ही.....
एक दिन तुमको कुत्ता काटेगा.


क्या हवा कह रही है, क्या घटा कह रही है, क्या हवा कह रही है, क्या घटा कह रही है,
क्या हवा कह रही है, क्या घटा कह रही है, इनको रुमाल दे दो, इनकी नाक बह रही है.

माथे पर लहू और सर पर रेत, माथे पर लहू और सर पर रेत,
अर्ज किया है
माथे पर लहू और सर पर रेत, क्योंकि उन्होंने फूल मारा पर गमले समेत


जब होता है दीदार दिल धड़कता है बार बार,
अर्ज किया है
जब होता है दीदार दिल धड़कता है बार बार, आदत से मजबूर तुम जाने कब मांग लो उधार

तुम होती तो ऐसा होता, तुम होती तो वैसा होता,
तुम इस बात पर इतना हंसती, तुम उस बात पर उतना खुश होती,
तुम इस बात पर ये कहती, तुम उस बात पर वो कहती,
शुक्र है खुदा का की तुम नही हो

प्यार तो हमको भी करना था, पर अफ़सोस कुछ ख़ास नही हुआ,
ताजमहल तो हमको भी बनवाना था, पर अफ़सोस, लोन पास नही हुआ

Medical Shairi....
when u breathe.,u respire.!
wah wah when u breathe u respire.!
wah wah wah..when u don't breathe.. u Expire..!!! ;)
wahwahwah

दिल चीर के दिखा दूँ दर्द ढूंढ़ नही पाओगे,
दिल चीर के दिखा दूँ दर्द ढूंढ़ नही पाओगे,
क्योंकि,
दर्द मेरे दांत में है.

खून से लिख दिया हर दीवार पर उसका नाम,
और फिर तोड़ दी हर दिवार जिस पर लिखा था उसका नाम,
क्यो क्यो
क्योंकि स्पेल्लिंग मिस्टेक थी

इतने कमजोर हो गए तेरी जुदाई से,
अर्ज किया है कि इतने कमजोर हो गए तेरी जुदाई से,
कि एक दिन मच्छर उठा के ले गया चारपाई से

हवा में बेताब उड़ रहे थे गालिब, वाह वाह,
हवा में बेताब उड़ रहे थे,
फिर
फिर क्या, रुक गई हवा और गिर गए गालिब

तुम पास आए, यूँ मुस्कुराए, अपने बत्तीस दांत मुझ को दिखाए,
देख के मेरा दिल, फुट फुट रोता है,
यार तुम से एक ब्रश भी ठीक से नही होता है.

होठों से छू लिया अहसास अब तक है,
आँखे नम है और सांसो में आग अब तक है,
और क्यो हो, जो खाई है वो तीखी हरी मिर्च है.

अर्ज किया है, खुदा बचाए आपको इन हसीनों से, इन नाज़निनो से, इन महजबिनो से, पर पर ...
पर क्या,
पर इन हसीनों को कौन बचायेगा आप जैसे कमीनो से.

इतनी मासूमियत कहाँ से लाते हो, इतना अच्छा कैसे मुस्कुराते हो,
बचपन से ही कमीने हो, या शक्ल ऐसी बनाते हो.

आइना देख कर बेगाना हो गया, ख़ुद अपने हुस्न का दीवाना हो गया,
"मुकाबला--हुस्न" में हिस्सा लिया आपने, औरो को कप मिला और आपको जुर्माना हो गया.

हिटलर भी चला गया, सद्दाम भी लटका दिया गया,
लादेन का कुछ पता नही,तुम्हारी भी तबियत कुछ ठीक नही रहती,
लगता है सतयुग आने वाला है.

जब से तुम को देखा है, मुझे दिन को चेन और रात को नींद नही आती,
जब भी तुम्हारी याद आती है, दिल से बस एक ही आवाज़ आती है,
जल तू जलाल तू, आई बला को टाल तू

खुदा की कसम तुम बहुत खुबसूरत हो, खुदा की कसम तुम बहुत खुबसूरत हो,
दुनिया की नज़र से ख़ुद को बचा लो,
काजल का एक टिका तुम्हारे लिए कम है,
एक काला तवा अपने गले में लटका लो.

क्या आँखें है, क्या जुल्फे है, क्या चेहरा तुमने पाया है,
ऐसा लगता है जैसे
ऐसा लगता है जैसे
पीपल के पेड़ से भुत उतर आया है,
अरे बुरा लगा...........
तो वापस चढ़ जाओ

आसमां पर जितने सितारे है, आँखों में जितने इशारे है,
समुन्दर में जितने किनारे है, उतने ही स्क्रू ढीले तुम्हारे है.

तोहर चेहरा चंदा समान,
तोहार बाल चंदा समान,
चंदा हमारी भेंस का नाम

तेरे प्यार की रौशनी ऐसी है कि हर तरफ़ उजाला नज़र आता है,
तेरे प्यार की रौशनी ऐसी है कि हर तरफ़ उजाला नज़र आता है,
सोचता हूँ घर की बिजली कटवा दूँ, कम्बक्त बिल बहुत आता है.

पलकों पर अपनी बैठाया है तुमको, बड़ी दुवाओं के बाद पाया तुमको,
आसानी से नही मिले तुम, "नेशनल जुलोजिकल पार्क" से चुराया है तुमको

जली को आग कहते है, बुझी को राख कहते है,
जली को आग कहते है, बुझी को राख कहते है,
कोबरा को नाग कहते है, और जो तुम्हारे पास नही उसे "दिमाग" कहते है.

आपकी यादों को पेप्सी बना कर पिया करेंगे, वक्त बेवक्त आपको बहुत मिस किया करेंगे,
मर भी गए तो क्या हुआ, यमराज के मोबाइल से आपको SMS किया करेंगे.

आज कुछ घबराए से लगते हो, ठण्ड से कपकपाये से लगते हो,
निखर आई है सूरत आपकी, बहुत दिनों बाद नहाये लगते हो.

जिसे कोयल समझा वो कौवा निकला, दोस्ती के नाम पर हौवा निकला,
जो रोका करते थे हमें शराब पीने से, आज उनकी ही जेब से पौवा निकला.

पत्ते घिर सकते है, पेड़ नहीं, सूरज डूब सकता है आसमान नहीं,
धरती सुख सकती है पर समंदर नहीं, दुनिया सुधर सकती है पर आप नहीं.

चमकते चाँद को नींद आने लगी, आपकी खुशी से दुनिया जगमगाने लगी,
देख के आपको हर कली गुनगुनाने लगी, बहुत ज्यादा हो गया यार,
अब तो मुझे भी फैकते फैकते नींद आने लगी.

हँसना मना है

हाल ही में मैंने youtube पर पाकिस्तान मीडिया की दुर्दशा का चित्रण करता ये विडियो देखा । आशा है आपको भी ये वाकई काफी हास्यास्पद और विचित्र लगेगा। So sit back, relax and just enjoy for next two minutes.

राजा परीक्षित, तक्षक और सात दिन

श्रीमद भागवद में राजा परीक्षित को क्षाप मिला था की सात दिन में उनकी मृत्यु हो जायेगी. आज के इन्सान इसका तात्पर्य समझने में असमर्थ है। हम में हर कोई सात दिन में ही मृत्यु को प्राप्त होगा (जी हाँ सात दिन यानि रवि, सोम, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र या शनिवार)। ये जो तक्षक नाग है ये और कोई नही हमारा काल है. काल के रूप में ये तक्षक हमें डसने को तैयार बैठा है और इन्ही सात दिनों में से किसी एक दिन डस लेगा. जिस तरह इस सत्य को जानने के बाद राजा परीक्षित की आँखे खुल गई और उन्होंने अपने जीवन को एक नई दिशा दी थी वैसे ही हम भी तक्षक और ये सात दिन दिमाग में रख कर अपने जीवन को उत्कृष्ट कार्य में अभी से लगा दे, ताकि परीक्षित की तरह अमर हो सके. कहते है की तक्षक फल के अन्दर छुप कर आया था इसका तात्पर्य ये है की काल कही भी, कभी भी किसी भी स्थिति में आ सकता है. जब उसको आना है वो किसी भी रूप में आएगा और उसको रोक पाना किसी के लिए भी सम्भव नही है फिर चाहे वो राजा हो या रंक.

Something to Ponder

The paradox of our time in history is that we have taller buildings, but shorter tempers; wider freeways, but narrower viewpoints; we spend more, but have less; we buy more, but enjoy it less.

We have bigger houses but smaller families; more conveniences, but less time; we have more degrees, but less sense; more knowledge, but less judgement; more experts, but more problems; more medicine, but less wellness.

We have multiplied our possessions, but reduced our values.

We talk too much, love too seldom, and hate too often.

We've learned how to make a living, but not a life; we've added years to life, not life to years.

We've been all the way to the moon and back, but have trouble crossing the street to meet the new neighbour.

We've conquered outer space, but not inner space; we've cleaned up the air, but polluted the soul;

We've split the atom, but not our prejudice. We have higher incomes, but lower morals; we've become long on quantity, but short on quality. These are the times of tall men, and short character; steep profits, and shallow relationships.

These are the times of world peace, but domestic warfare; more leisure, but less fun; more kinds of food, but less nutrition.

These are days of two incomes, but more divorce; of fancier houses, but broken homes. It is a time when there is much in the show window and nothing in the stockroom; a time when technology can put this post visible to millions in a pust of button but when no one has time to ponder.