अब लग रहा है कि भ्रष्टाचार को लेकर सारा देश आंदोलित है। जब हाड़तोड़ मेहनत कर बड़ी मुश्किल से अपने घर का खर्च चलाने वाला आम आदमी भ्रष्ट राजनेताओं और अधिकारियों के पास करोड़ों की दौलत देखता है तो देश की व्यवस्था पर से उसका विश्वास उठ जाता है। यहां तक कि वो खुद अपने ईमानदार होने को कोसने लगता है। ईमानदारी पर से और देश की व्यवस्था पर से लोगों का विश्वास न उठे, इसके लिए अब परिणाम दिखें ऐसे कदम तुरंत उठाना जरूरी हैं। किसी तरह की लीपापोती या दिखावा सहन करने के लिए देश के नेता चाहे कितनी भी कमर कसे लेकिन इसे सहने के लिए अब आमजन अब तैयार नहीं है। अनशन और धरने पर तो शायद अंग्रेज सरकार ने भी इतने प्रतिबंध नहीं लगाए थे जितने मनमोहन की सरकार लगा रही है। लोकतंत्र का ये कैसा असहनीय भद्दा मजाक है कि राजनीतिक रैलियों और जुलूसों में पैसे से खरीदकर और ढोकर लाई हुई भीड़ पर तो कोई प्रतिबंध न हो और जिस आंदोलन से पूरा देश जुड़ना चाहता है उसके लिए इतनी शर्तें? कांग्रेस का ये कैसा दोगला चेहरा है कि अगर अन्ना भ्रष्ट्राचार के विरोध में अनशन करे तो ब्लैकमेल और अगर गाँधी अनशन पर बैठे तो तो राष्ट्रपिता का देश के लिए त्याग.
दिल्ली पुलिस की शर्तों से नाराज़ अन्ना ने प्रधानमंत्री से हस्तक्षेप करने को कहाँ तो प्रधानमंत्री से जवाब मिला कि अन्ना अपनी शिकायत उचित दफ़्तर के समक्ष रखें. प्रधानमंत्री ने अपनी सरकार के मातहत आने वाली दिल्ली पुलिस के बारे में कहा है कि ये उनके कार्यालय के दायरे में नहीं आता. याद नहीं आता कि इतनी साफ़गोई से बात करने वाला कोई प्रधानमंत्री इससे पहले हमें मिला था.
सनद रहे टेलीकॉम के घोटाले के समय भी उन्होंने कहा था कि ये मेरे मंत्रालय का मामला नहीं. वो वित्त मंत्रालय और संचार मंत्रालय के बीच का मामला है. राष्ट्रमंडल खेल भी उनके विभाग का मामला नहीं था. वो खेल मंत्रालय, वित्त मंत्रालय और दिल्ली की कांग्रेस सरकार का मामला था. जनता को बात-बेबात प्रधानमंत्री को परेशान नहीं करना चाहिए. अगर महंगाई से मर रहे हैं तो वित्तमंत्री से कहिए, बारिश कम या ज्यादा हो, अन्न सड़ रहा हो तो कृषि मंत्रालय, अगर जनता ग़रीबी और भूख से त्रस्त है तो योजना आयोग, देश पर दुश्मन हमला करे तो रक्षा मंत्रालय, आतंकवादी हमला करे तो राज्य पुलिस आदि के पास जाना चाहिए, बेचारे प्रधानमंत्री कार्यालय का इससे क्या लेना देना?
देश का इससे ज्यादा दुर्भाग्य और क्या हो सकता है जब देश का प्रधानमंत्री ये कहें की देश में क्या कुछ हो रहा है उन्हें और उनके मंत्रालय से उसका कोई लेना देना नहीं है. अब ये स्पष्ट हो गया है कि प्रधानमंत्री भी भ्रष्टाचार में बराबर के भागिदार हैं. कहते है खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदलता है. इतने समय से निकृष्ट और निकारा नेताओ और नौकरशाहों से घिरे रहने के बाद अब प्रधानमंत्री भी उन्ही भ्रष्ट नौकरशाहों की श्रेणी में आ गए हैं, जो जानबूझ कर आम जनता को परेशान करने के लिए एक दफ़्तर से दूसरे दफ़्तर का चक्कर लगाने को मजबूर करते हैं. अपने इस कृत्य से मनमोहन ने अब ये सिद्ध कर दिया है कि वे सचमुच में वह एक खिलौना मात्र हैं.
छद्म लोकतंत्र और भ्रष्ट लोकतान्त्रिक मूल्य
Posted by
Bhavesh (भावेश )
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Tuesday, August 16, 2011
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